आजादी की असली कहानी - कैसे मिली स्वतंत्रता

 


हर वर्ष 15 अगस्त आते ही स्वतंत्रता मिलने के जश्न में यह देश डूब जाता है। प्रतिवर्ष धूमधाम से आजादी मिलने की कहानियों को सुनाया जाता है। इस कहानियों में ऐसी कई हकीकत बातें हैं जिन्हें नजरंदाज कर दिया जाता है। भारत ने स्वतंत्रता के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। लाखों का बलिदान, करोड़ों का विस्थापन और देश का विभाजन। इस स्वतंत्रता संग्राम, आईये समझते हैं उन अनकही और अनसुनी सच्चाई को, जो आपके और मेरे लिए बहुत जरूरी है।

1857 की क्रांति : 

भारत को स्वतंत्रता प्राप्त किये सात दशक से ज्यादा का समय हो गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारतवासियों ने एक लम्बी लड़ाई लड़ी है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति भारतीय रियासतों का एक संयुक्त कदम था ताकि भारत से ब्रिटिश अधिपत्य समाप्त हो जाये। लेकिन यह क्रांति असफल हो गयी। असफल होने के पीछे एक कारण योजनाबद्ध तरीके से क्रांति की शुरुआत न होना है। साथ ही इतिहास का एक काला सच यह भी है कि भारत की तमाम रियासतें ब्रिटिश के साथ मिलकर लड़ी थीं। यानी अपनी ही मिटटी से देशद्रोह करने वालों के कारण हम इस लड़ाई को हारे थे। अंग्रेजों का साथ देने वालों में बीकानेर, मारवाड़, रामपुर। कपूरथला, नाभा, भोपाल, सिरोही, पटियाला, सिरमौर, अलवर, भरतपुर, बूंदी, जावरा, बीजावर, अजयगढ़, रीवा, केंदुझर, हैदराबाद, कश्मीर और नेपाल।



स्वतंत्रता प्राप्ति की न जाने कितनी ही सच्चाई छुपाई गयी और बदली गयी ताकि भूतकाल के कुछ लोगों के गलत निर्णयों और अपरिपक्व दिमाग को वर्तमान पीढ़ी न जान पाए। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में क्रांति की असफलता के पीछे जिन रियासतों का हाथ था, उनको कभी भी दंड नही मिला। यह भी दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद जब सभी रियासत भारत में मिला ली गयी तो रियासतों के राजाओं को राजभत्ता दिया गया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों का साथ देने वाली रियासतों के राजाओं को भी राजभत्ते दिए गये। आपको जानकर हैरानी होगी कि हैदराबाद रियासत जोकि न सिर्फ अंग्रेजों के साथ थी बल्कि आजादी के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बनना चाहती थी, उसको बीस लाख प्रति वर्ष का राजभत्ता दिया गया। इस राजभत्ते को 1967 में समाप्त कर दिया गया।



प्रथम असफल क्रांन्ति के कई दशक तक भारत में हिंसात्मक क्रांति का दौर थम सा गया। कई दशक तक अध्यात्म और साहित्य के जरिये समाज को जगाने का प्रयास होता रहा। इस बीच कई बड़े बड़े लेखक, कवि और संत हुए। इसके बाद भारत प्रवेश करता है बीसवीं सदी में।


सावरकर की अनदेखी :

एक नवयुवक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए ब्रिटेन के खिलाफ वैचारिक और सशस्त्र लड़ाई छेड़ देता है। वह अंग्रेजों के बंगाल को बांटने के निर्णय का विरोध करते हुए सन 1905 में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार व उनकी होली जलाने का कदम उठाता है। अंग्रेजी शासन के खिलाफ ऐसा विरोध आम नही था। इसी प्रकार की विदेशी कपड़ों की होली जलाने का साहसिक कदम महात्मा गाँधी ने 16 वर्ष बाद 1921 में उठाया। 



यह नवयुवक था विनायक दामोदर सावरकर जिसे वीर सावरकर के नाम से इतिहास में पहचान मिली है। सावरकर ने ब्रिटेन में पढाई के बहाने रहना शुरू किया और ब्रिटिश साम्राज्य की नाक के नीचे रहकर अंतर्राष्ट्रीय अख़बारों, विभिन्न संगठनों, अंतर्राष्ट्रीय ब्रिटेन विरोधी गुटों से सम्पर्क बनाकर भारत की आजादी की लड़ाई जारी रखी। 1857 की क्रांति के बारे में पुस्तक लिखकर भारतीयों को एक और क्रांति करने का हौसला देने की कोशिश की और इस कदम से सबसे शक्तिशाली साम्राज्य इतना डर गया कि पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया हालाँकि कई वर्ष की मेहनत के बाद गुपचुप तरीके से यह पुस्तक छपी और भारत में क्रांतिकारियों में बंटी भी। 





सावरकर द्वारा प्लान लन्दन में तैयार किये जाते थे और कांड भारत में किये जाते थे जिससे अंग्रेज परेशान हो गये। सावरकर के शिष्य मदनलाल ढींगरा ने विलियम हट कर्जन को ठोक दिया और भारत में भी कुछ अंग्रेज अधिकारीयों की हत्या कर दी गयी। इसका सूत्रधार सावरकर ही थे जिन्हें 1910 में गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद सावरकर को पानी के जहाज से भारत ले जाने की प्रक्रिया शुरू हुई लेकिन फ्रांस के निकट इन्होने जहाँ से छलांग लगाकर फ्रांस में राजनीतिक शरण लेने की कोशिश की लेकिन फ्रांस सैनिकों ने उन्हें ब्रिटिश सैनिकों को सौंप दिया। बाद में हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में सावरकर की कस्टडी को लेकर केस चला। एक व्यक्ति के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में सुनवाई होना बताता है कि वो कितना बड़ा व्यक्तित्व था। बाद में 24 दिसम्बर 1910 और 31 जनवरी 1911 को दो जन्मों की उम्रकैद हुई जो इतिहास में पहली बार किसी को हुई थी। साथ ही उन्हें कालापानी की सजा सुनाई गयी यानि विश्व की सबसे क्रूर और कठिन जगह अंदमान की जेल में दो जन्मो की उम्रकैद। ये सब तब हुआ, जब महात्मा गाँधी को कोई जानता तक नही था यानी गाँधी तक दक्षिण अफ्रीका में थे। गाँधी के भारत आने से पहले सावरकर भारत के नेता बन चुके थे और वो सब कार्य कर चुके थे जो उन्हें महान स्वतंत्रता सेनानी बनाता है। सावरकर 1911 में अंदमान की जेल भेज दिए गये जबकि महात्मा गाँधी 1915 में भारत आये।


भारत की आजादी गाँधी के कारण मिली  :

यह बहुतायत पढ़ाया जाता रहा है कि महात्मा गाँधी के संघर्षों के कारण भारत को आजादी मिली। कई बड़े बड़े मीडिया समूह और राजनीतिक व्यक्ति इस बात को खुलेआम प्रसारित और प्रचारित करते हैं कि देश को आजादी गाँधी के आंदोलनों की वजह से मिली।



अगर इतिहास में जाया जाये तो महात्मा गाँधी ने तीन बड़े आन्दोलन किये। पहला था सन 1920 में असहयोग आन्दोलन। उसी समय 1919 में ब्रिटिश सरकार ने कड़ा कानून बनाया जिसमें मुकदमें के बाद कोर्ट में अपील करने का अधिकार खत्म करने, राजद्रोह के मुकदमों पर जजों को अपने हिसाब से सजा सुनाने, प्रेस की स्वतंत्रता खत्म करने और अपने इच्छा से किसी को भी गिरफ्तार करने व निष्काषित करने का प्रावधान था। इसको रोलेट एक्ट नाम से जाना जाता है। इसके विरोध में गाँधी ने असहयोग आन्दोलन किया जिसमें लोगों ने वो सब कार्य बंद कर दिए जिससे अंग्रेज जुड़े थे। सभी कोर्ट, स्कूल, कॉलेज, कार्यालय और आवगमन बंद हो गये। इसने एक बड़े आन्दोलन की शक्ल ले ली। इस आन्दोलन से पहले जलियावाला हत्याकांड हो चुका था जिसमें बड़ी संख्या में लोगों को गोली मार दी गयी। इस आन्दोलन को गाँधी ने अहिसंक बनाया लेकिन फरवरी 1922 में चौरी-चौरा कांड हुआ और लोगों ने एक पुलिस स्टेशन में आग लगा दी। इसमें कई पुलिस वाले मार दिए गये। यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी क्योकि जलियावाला बाग में हजारों लोगों को घेरकर पुलिस ने गोली चलाई थी। लेकिन गाँधी इस घटना से दुखी हो गये और आन्दोलन बिना किसी परिणाम तक पहुँचता इससे पहले गाँधी ने इसको समाप्त कर दिया।



इसके बाद 1930 में एक और बड़ा आन्दोलन गाँधी ने किया जिसकी जनक दांडी यात्रा थी। गाँधी जी ने 6 अप्रैल 1930 को दांडी पहुंचकर नमक बनाया और अंग्रेजी कानून तोड़ा। इससे पुरे देश में कानून तोड़ने का प्रचलन बढ़ गया। क्योकि समुन्द्र के पानी से नमक बनाना कानूनन अपराध था इसलिए जगह जगह नमक बनाया गया और कई जगह कानून तोड़ा गया। इस आन्दोलन को भी गाँधी ने अहिंसक बनाया जबकि नमक बनाते जाते समय देश में कई जगह लाठीचार्ज हुआ जिसमें अनेकों लोग गम्भीर रूप से घायल हुए और अनेकों लोगों की मृत्यु हुई। वर्ष 1931 में गोलमेज सम्मेलन में गाँधी और वायसराय इरविन के बीच समझौता हुआ जिसके तहत सरकार हर उस राजनितिक बंदी को छोड़ने पर राजी हो गयी जिसपर हिंसा का कोई आरोप नही था बदले में गाँधी ने आन्दोलन को वापस ले लिया। बाद में अंग्रेजी सरकार के कार्य से नाखुश होकर दोबारा आन्दोलन शुरू हुआ लेकिन 1933 में गाँधी ने इसे समाप्त करने की घोषणा की। एक वर्ष बाद कांग्रेस ने भी इस आन्दोलन को समाप्त करने की औपचारिक घोषणा की। इसके साथ ही युवा पीढ़ी गाँधी से रुष्ट हो गयी। यह आन्दोलन बिना किसी कारण और किसी नतीजे पर पहुंचे बिना समाप्त हुआ और असफल ही रहा,


तीसरा आन्दोलन गाँधी ने तब शुरू किया जब दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेजों ने कांग्रेस को पागल बनाकर भारतीय सैनिकों की मदद हासिल कर ली थी। इस बार अंग्रेजों का गुट हार रहा था और जापान आगे बढ़ रहा था। पूर्वी देशों में कई जगह अंग्रेजी शासन को जापान ने खदेड़ दिया और जापान म्यांमार तक आगया। इसी समय गाँधी ने अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा दिया (ऐसा नारा कई वर्षों से लग ही रहा था लेकिन इस बार परिस्थिति थोड़ी अलग थी)

सन 1942 में शुरू हुआ यह भारत छोड़ो आन्दोलन भी गाँधी ने अहिंसक रखा। लेकिन इस आन्दोलन में मुस्लिमों का साथ न के बराबर था। क्योकि जिन्ना पाकिस्तान की मांग को लेकर मुस्लिमों को साथ लेकर चल रहा था। मुस्लिमों का साथ गाँधी के दुसरे आन्दोलन में भी नही था और इसीलिए गाँधी को मुस्लिमों का साथ लेने के लिए मजबूरन खिलाफत आन्दोलन का साथ देना पड़ा।

करो या मरो का नारा गाँधी द्वारा लगाये जाने के बाद जगह जगह प्रदर्शन हुए, तोड़फोड़ हुई। गाँधी को गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश सरकार ने इस बार बहुत ही बेरहमी से मौर्चा सम्भाला और दस हजार लोगों को मारकर आन्दोलन खत्म कर दिया। यह गाँधी का तीसरा बड़ा और अंतिम आन्दोलन था जोकि कोई नतीजा न दे सका।

सन 1942 में यह आन्दोलन असफल रहने के बाद भी कुछ लोग न जाने किस आधार पर गाँधी को देश की आजादी का कारण बता देते हैं? सही मायने में देश की आजादी में महात्मा गाँधी का यही भूमिका है कि उन्होंने देश के निम्न तबके को साथ लिया, उनके दिलों में जगह बनाई और जो लोग जान नही देना चाहते थे, उन्हें नारेबाजी तक सिमित रखकर एक काम दे दिया। इसके आलावा तीनो बड़े आन्दोलन असफल हुए और आजादी अब भी दूर थी।


सुभाष चन्द्र बोस की भूमिका :

अब सवाल उठता है कि आखिर आजादी मिली कैसे?  दरअसल गाँधी के दुसरे आन्दोलन सविनय अवज्ञा आन्दोलन के असफल होने के बाद युवाओं की रूचि कांग्रेस से हट गयी। लोगों को लगने लगा कि कांग्रेस कुछ नही कर सकती और अहिंसा के बल पर कुछ नही पाया जा सकता। इसी में सुभाष चन्द्र बोस भी शामिल थे। उन्होंने 1941 में ही सशस्त्र विद्रोह के जरिये भारत को आजाद करने का ठान लिया। बोस ने इसी वर्ष जर्मनी और दो वर्ष बाद जापान पहुंचे। जापान के सहयोग से भारत की आजादी का बिगुल फूंक दिया और 1943 में स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार का एलान कर दिया। इस सरकार को नौ देशों से मान्यता मिल गयी और वो भारत के पहले प्रधानमन्त्री बन गये। 



जापान में कैद भारतीयों को एकत्रित कर आजाद हिन्द फ़ौज बना दी और स्वयं को कमांडर इन चीफ घोषित किया। बोस ने एतिहासिक भाषण में “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा” नारा लगाकर बता दिया कि आजादी मिलेगी बस रक्त बहाना पड़ेगा। बोस के ही नारे “दिल्ली चलो” ने बता दिया कि कारवां दिल्ली जाकर ही रुकेगा। इसके बाद आजाद हिन्द फ़ौज और  जापानी फ़ौज आगे बढ़ गयी और एक एक करके पूर्वी देशों से ब्रिटेन को उखाड़ फेंका। ताईवान, फिलिफिंस, थाईलैंड होते हुए वीर सैनिक म्यांमार तक आ गये। अंदमान निकोबार द्वीपसमूह को आजाद कराकर तिरंगा फहरा दिया गया। मार्च 1944 को यह सेना कोहिमा और इम्फाल के भारतीय मैदानी इलाकों में पहुँच गयी।



बोस की यह कारवाई अंग्रेजी सरकार के लिए बड़ी मुसीबत थी। लगातार बढ़ते दबाब के कारण उन्हें भारत पर कण्ट्रोल बनाये रखना मुमकिन नही लग रहा था। बोस द्वारा उत्तर पूर्वी कई राज्यों को आजाद करा लिया गया।

1944 और 1945 में हालात अचानक से पलट गये। पश्चिम में जर्मनी हार गया और अमेरिका द्वारा जापान पर परमाणु बम गिराए जाने के कारण जापान ने भी सरेंडर कर दिया। आजाद हिन्द फ़ौज को जापानी मदद मिलना बंद हो गयी और अंग्रेज कोहिमा में मजबूत हो गये। बोस को वापस हटना पड़ा। बोस ने स्थिति को भांपते हुए आजाद हिन्द फ़ौज को समाप्त कर दिया गया और खुद ताईवान के रास्ते जापान की तरफ चले गये।



सुभाष चन्द्र बोस के इस अभियान ने भारत में आजादी मिलने की आशाओं को न सिर्फ मजबूत किया बल्कि भारतीयों को सशस्त्र विद्रोह के लिए तैयार कर दिया। दुसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की तरफ से पच्चीस लाख सैनिक युद्ध लड़ रहे थे। इसमें से 87 हजार सैनिक मारे गये और तकरीबन 67 हजार युद्धबंदी बने। ये सभी सैनिक यूरोप, अरब और अफ्रीका में युद्ध जीत रहे थे और बखूबी युद्ध में पारंगत थे। सन 1945 में जब दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो इन सैनिकों का भारत वापस लौटना शुरू हुआ। खास बात यह थी कि ये सभी सैनिक सुभाष चन्द्र बोस से प्रेरित थे और इनमें एक ही भावना थी कि वापस लौटते ही भारत को आजादी दिलाना जैसे सुभाष ने प्रयास किये थे। अंग्रेजी सरकार इस बात को समझते ही घबरा गयी क्योकि पुरे भारत में अंग्रेजी सिपाही सिर्फ 60-70 हजार थे जबकि विदेश से लौट रहे सैनिकों की संख्या 24 लाख थी। 




इसके साथ ही भारतीय नौसेना ने भी विद्रोह कर दिया और सैनिकों ने युद्धपोतो पर दिल्ली चलो जैसे नारे लिख दिए। नौसेना का यह विद्रोह खराब खाने को लेकर शुरू हुआ जिसमें बाद में आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों की रिहाई और इंडोनेशिया से सैनिक वापस बुलाने की मांग भी जुड़ गयी। इसके साथ ही वायुसेना में भी विद्रोह हो गया।

स्थिति ब्रिटेन के लिए खतरनाक हो गयी और उन्होंने तुरंत भारत को स्वतंत्र करने का एलान कर दिया। हालाँकि औपचारिक रूप से 14 अगस्त को विभाजित होने के बाद 15 अगस्त 1947 की अर्धरात्रि को भारत स्वतंत्र हुआ।

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