मुस्लिम महिलाओं का दुख - महिला दिवस विशेष

 

आज पूरी दुनिया में अंतर्राष्टीय महिला दिवस मनाया जा रहा है।  इस दिन लगभग हर देश में कोई न कोई कार्यक्रम आयोजित होता ही है। भारत के अंदर पिछले कुछ वर्ष से महिला दिवस मनाने का चलन बढ़ा है। महिलाओं की स्थिति के बारे में चर्चा करना, उनके अधिकारों के बारे में चर्चा करना, उनकी समस्याओं को गंभीरता से लेना यह सब हाल ही के वर्षों में तेजी से बढ़ा है। राजनीतिक स्तर पर भी वर्तमान में महिला सशक्तिकरण का मुद्दा आम मुद्दा बन गया है।  सरकारें अपने घोषणा पत्रों में इसका उल्लेख करना कभी नही भूलतीं। संसद में भी महिला सांसदों की संख्या बढ़ाने को लेकर सरकारें चिंतिंत दिखाई देती हैं। इतना सब होने के बाबजूद अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं का एक वर्ग अपने अधिकारों को कुचलते हुए देख रहा है, जिसपर सब तरफ चुप्पी है। हमारे देश में पुरुष सत्ता का विरोध करते हुए कुछ लोग जरुर मिल जायेंगे लेकिन कोई उस वर्ग के लिए आवाज नही उठाता।

मैं बात कर रहा हूँ भारत में मुस्लिम महिलाओं की। भारत की 135 करोड़ की विशाल जनसंख्या में इनकी संख्या तकरीबन 7 % है। इतनी विशाल आबादी के उपर न सिर्फ दुखों का पहाड़ खड़ा हुआ है बल्कि इनके लिए आवाज उठाने वाला भी कोई नही है। भारत में यह बहस का मुद्दा बनाया जाता है कि लडकियाँ स्कर्ट पहनें या नही ? लेकिन आजीवन बुर्के में लिपटा रहने को मजबूर मुस्लिम महिलाओं के बारे में चर्चा नही हुई। औरतों के घुंघट को सामाजिक बुराई घोषित करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी कभी यह नही कहते कि जून की तपती दोपहर में बाजार में काले कपड़े को सिर से पैर तक लपेटे एक औरत आखिर क्यों जा रही है? यद्यपि बुर्का भी सामाजिक बुराई का ही हिस्सा है लेकिन इस पर चुप्पी साध ली जाती है। पूरी दुनिया में बुराई को धार्मिक रंग देकर उसको सही ठहराने का रिवाज काफी पुराना है। इसी तरह बुर्का की वकालत करने वाले भी इसको इस्लामिक संस्कृति का अंग बताने से भी नही हिचकते। क्या 21 वीं सदी में हम इस सोच को बदल नही सकते? क्या करोड़ों महिलाओं को बुर्के से आजादी नही दे सकते? क्या मुस्लिम महिलाओं को अधिकार नही है कि वो स्वतंत्रता पूर्वक अपने पसंद के कपड़े पहनकर घूम सकें। ऐसा नही है कि सभी मुस्लिम महिलाएं बुर्के में रहती हैं लेकिन एक बड़ा वर्ग इस रुढ़िवादी और महिला विरोधी प्रचलन को बनाये रखे हुए है। छोटी छोटी मासूम बच्चियों को हिजाब पहनने पर मजबूर किया जाना उनके अधिकारों के दमन की शुरुआत होती है। पहले बच्चियों को बलपूर्वक हिजाब पहनने को मजबूर किया जाता है, धमकाया जाता है, प्रताणित किया जाता है और उन बच्चियों के मन में डर को स्थायी रूप दे दिया जाता है। महिलाओं की आजादी की बात करने वाली संस्थाएं इस कुरीति पर कभी नही बोलती और न ही घर घर जाकर कोई जागरूकता अभियान चलाया जाता है। सिर्फ इतना ही नही, कच्ची उम्र में शादी करने का सबसे ज्यादा दुःख भी मुस्लिम महिलाओं ने सहा है। संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक 18 वर्ष पूरी होने पर ही लडकी की शादी वैध है लेकिन मुस्लिम समाज में अधिकतर 14-15 वर्ष पर ही शादी कर दी जाती है। अगर किसी लड़की की 12 वर्ष की उम्र में शादी हो जाये तो वो भी आश्चर्य नही। क्या आपने कभी देखा है मानव अधिकारों, बाल अधिकारों, महिला अधिकारों पर संगोष्ठी/कार्यक्रम करने वाली किसी भी संस्था को इस पर बात करते हुए? छोटी छोटी बच्चियों के बचपन को तबाह कर दिया जाता है। उनके सीखने, पढने के सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं। जो बच्चे शायद अभी ठीक से दुनिया को समझ भी नही पाए उनपर जिम्मेदारी डाल दी जाती है। कम उम्र में शादी करने के बाद 18 वर्ष पूर्ण होने से पहले ही गर्भवती होने की दर भी सबसे ज्यादा मुस्लिम लड़कियों में है। कम उम्र पर सन्तान उत्पत्ति के कारण जान गंवाने वाली सबसे ज्यादा मुस्लिम लड़कियां ही हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस प्रकार एक बड़ी आबादी के अधिकारों को कुचला जा रहा है। उनके जीवन को नर्क से भी बदतर बनाया जा रहा है, और इनपर धार्मिक रीतिरिवाज का नाम देकर पर्दा भी डाल दिया जाता है। मुस्लिम समाज में बहुविवाह वैध है यानि एक व्यक्ति कई शादी कर सकता है। यही रितिरिवाज कारण बनता है बच्चियों के शारीरिक शोषण का। सिर्फ शारीरिक शोषण के लिए छोटी बच्चियों से शादी की जाती हैं, एक व्यक्ति कई कई लड़कियों से शादी करता है, और इस गुनाह को स्वयं कानून संरक्षण देता है। हाल ही में केंद्र सरकार ने ट्रिपल तलाक को प्रतिबंधित किया है। यह ट्रिपल तलाक इसी शारीरिक शोषण करने का एक तरीका था। मुस्लिम समाज की यह प्रथा कि कोई तलाक शुदा स्त्री/ लड़की अपने पति के साथ वापस फिर से तभी रह सकती है जब वह किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना लेगी। यह अमानवीय, क्रूर प्रथा लाखों लड़कियों के जीवन को नर्क बना रही थी। कम उम्र में शादी करके लायी लड़कियों को तलाक देकर हलाला के बहाने शारीरिक शोषण करने का गंदा खेल भारत में आजादी के 70 वर्ष तक चलता रहा। हालाँकि अब यह प्रतिबंधित है लेकिन महिलाओं के साथ अब यह नही हो रहा, ऐसा कहना जल्दबाजी है।  मुस्लिम महिलाओं के उपर एक और रिवाज दुख का पहाड़ है और वो है नुताह (मुताह) । इस रिवाज के अंतर्गत शादी किसी निश्चित समय के लिए ही होती है। यानी कोई व्यक्ति अगर किसी लड़की से सिर्फ एक सप्ताह, या एक रात के लिए ही शादी करना चाहता है तो यह धार्मिक नजरिये से वैध है। इस रिवाज का फायदा उठाकर लाखों लडकियों को 2-2 दिन के लिए बेचा जाना आम बात है। हैदराबाद में एक समय एक गैंग पुलिस को मिला जोकि नाबालिग लडकियों को विदेश में 7 दिन की शादी कराने के लिए ले जाता था और फिर वापस घर छोड़ देता था। हजारों लड़कियों को धार्मिक रिवाज की आड़ में इस्तेमाल किया जाता था।

इस मुस्कान के पीछे छिपी पीड़ा को पहचानना होगा !

यहाँ सवाल यही खड़ा होता है कि क्या मानव अधिकार इन मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों के लिए नही हैं? क्या हमारे पास एक दिन का भी समय नही है कि इनकी समस्याओं पर चर्चा हो सके? क्या देश की 7% आबादी के प्रति भाव शून्य कर लेना ठीक है? सवाल सिर्फ बुर्का, हिजाब, नाबालिग उम्र में शादी, बहुविवाह और ट्रिपल तलाक की आड़ में शारीरिक शोषण तक ही सिमित नही है बल्कि मुद्दे और भी हैं। स्कूलों में मुस्लिम लड़कियों की कम उपस्थिति, सामाजिक क्षेत्र में उनका प्रतिनिधित्व कम होना, परिवार में बोलने, निर्णय लेने का अधिकार लगभग न के बराबर आदि मुद्दे भी मुस्लिम महिलाओं के दुःख-दर्द को बताते हैं। मुस्लिम समाज में पुरुष प्रधान सोच व्यापक रूप से फैली हुई है। कई जगह धार्मिक स्थलों पर महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित है। इसके साथ ही अन्य रीतिरिवाज में पुरुष ही हिस्सा लेता है। सामाजिक स्तर पर पंचायतों में भी मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व शून्य है। इस कारण घरों में, पंचायतों में मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों की कोई सुनेगा! इसकी कल्पना भी नही की जा सकती।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर एक अच्छा मौका है कि हम इनके दुःख को समझें। इनकी समस्या को दुनिया के सामने रखें। उनके पढने का, बाहर घुमने का, मनपसन्द कार्य करने और कपड़े पहनने का, सामाजिक क्षेत्र में आने का सभी प्रकार के अधिकार उन्हें दिलाने में मदद करें। धार्मिक रुढ़िवादी सोच के ताले को तोड़ना हम सबकी जिम्मेदारी है। इन महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए हम सबको आगे आना पड़ेगा। धर्म के भेद को पीछे रखकर इंसानियत के लिए एक मंच पर आना होगा। राजनितिक फायदे के लिए मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को नजरंदाज करने वाले राजनीतिक दलों पर दबाब बनाना ही होगा। जब तक समाज उठकर प्रतिरोध नही करेगा तब तक राज्य सरकारें इनकी तरफ ध्यान नही देंगी। संसद भी इनके लिए खड़ी नही होगी।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सिर्फ नारों तक सिमित न रहे। सिर्फ सोशल मीडिया पर पोस्ट करने तक सिमित न रहे। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस किसी आयशा को पढने का अधिकार दिलाने का अवसर बने। किसी आसिफा को नाबालिग उम्र में दबाबपूर्वक शादी से बचाने का मौका बने। किसी सुहाना के खुली हवा में उड़ने वाले पंखों को काटने से बचाने का अवसर बने। किसी नाजिया के मुताह जैसी क्रूर और अमानवीय प्रथा से बचाने का दिन बने। किसी नुसरत को शारीरिक शोषण से बचाने का दिन बने। किसी सोफिया को मनपसंद कपड़े पहनकर बाहर घुमने की आजादी दिलाने का दिन बने। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस वाकई महिलाओं के अधिकारों के लिए जाना जाये, उनके समानाधिकार सुनिश्चित किये जाने के लिए जाना जाये।

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