वियतनाम में हिन्दू संस्कृति के सबूत


अभी कुछ दिन पहले पूर्वी एशिया के देश वियतनाम से चौकाने वाली खबर आई। दरअसल वियतनाम में भारतीय पुरातत्व विभाग (अर्कोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया) द्वारा खुदाई हुई जिसमें एक विशाल शिवलिंग निकला। धरती में निकले इस शिवलिंग से न सिर्फ पूरी दुनिया का ध्यान वंहा गया बल्कि वियतनाम और अन्य पूर्वी एशिया के देशों के बीते इतिहास को भी खंगाला जाने लगा। हिन्दू संस्कृति के पुराने इतिहास के जीवंत साक्ष्य के रूप में जमीन से निकली यह शिवलिंग न सिर्फ इतिहास को बयाँ करती है बल्कि भारत में अब तक पेश की जाती रही तमाम मिथ्या और षड्यंत्र पर आधारित थ्योरी को नकारती है। सबसे पहले हम वियतनाम के वर्तमान और उसके इतिहास में जानेंगे। उसके बाद एक-एक करके हर उस कड़ी को जोड़ेंगे जो न सिर्फ वियतनाम का गौरवशाली इतिहास है बल्कि भारत का भी इतिहास रहा है।

वियतनाम दक्षिण एशिया में Indo-china नाम से जाना जाने वाले भाग में सबसे पूर्वी किनारे पर स्थित एक देश है। चीन, कम्बोडिया और लाओस का पड़ोसी वियतनाम दक्षिणी चीन सागर पर बसा है। वियतनाम में करीब 85 % लोग बोद्ध हैं। जनसंख्या की दृष्टि से यह चीन और जापान के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बौद्ध देश है। वर्तमान में करीब 08% लोग इसाई हैं। यंहा हिन्दू बहुत कम या नामात्र हैं। हालाँकि कुछ गाँव में आज भी वो लोग हैं जो हिन्दू हैं। यंहा देशी धर्म के लोग भी हैं यानि अपने स्वयं के देवी-देवताओं और आत्माओं आदि की पूजा करने वाले। हमारे यंहा स्कूल में अक्सर वियतनाम का इतिहास पढ़ाया जाता है। इसके नेता हो ची मिन्ह और इन्ही के नाम पर इसकी राजधानी के बारे में हम अक्सर पढ़ते हैं। वैसे तो वियतनाम का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन आधुनिक इतिहास देखें तो 938 ई। में चीन से अलग होकर स्वतंत्र देश बन गया। इसमें इसके बाद कई राजवंशों का शासन रहा। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में फ्रांस का परतंत्र हो गया ठीक वैसे ही जैसे हम ब्रिटिश लोगो के थे। वियतनाम ने आज़ादी की लड़ाई की समाप्ति के साथ अपने को दो हिस्सों में बंटते हुए देखा है। दो अलग अलग राजनीतिक रूप में बंट जाने के कारण हुआ गृह युद्ध 1975 में उत्तरी वियतनाम के विजय के साथ समाप्त हुआ।

अब बात करते हैं वियतनाम के पुराने इतिहास की। यह पुराना इतिहास हिन्दू राजाओं, राजवंशो और परम्पराओं से भरा पड़ा है। दरअसल इस्लाम, बौद्ध, इसाई धर्म से पहले विश्व में जहाँ भी मानव सभ्यता मौजूद थी वो या तो अपने स्थानीय रीती रिवाजों को मानती थी या हिन्दू धर्म को। जंगलों में रहने वाले आदिवासी तब प्राकृतिक रूप से प्राप्त ज्ञान के आधार पर ही जीवन व्यतीत करते रहते थे। गाँव व् शहरों के रूप में उन्नत मानव जाति एक तय धार्मिक परम्पराओं को मानती थी। प्राचीन काल में भारत हिन्दू संस्कृति का मुख्य केंद्र रहा। दूसरी जगहों पर हिन्दू संस्कृति बनी रही लेकिन उनका भारत से लगातार सम्पर्क रहा। इसीलिए हमारे भविष्यपुराण और अन्य पुराण में विश्व के भौगोलिक स्थिति का हजारों वर्ष पहले का वर्णन मौजूद है। उस समय कितने समुन्द्र, कितने महाद्वीप, कितने और कहाँ पर्वत चोटियाँ हैं, इन सबकी जानकारी थी। भारतीय महाद्वीप से अलग विश्व में जहाँ भी मानव सभ्यता थी तब वहां अलग अलग क्षेत्र में अलग अलग देवताओं को मानने वाले लोग होते थे।अगर सभी सभ्यताओं को गौर से स्टडी करें तो देखते हैं कि भगवान शिव हर सभ्यता में कॉमन रहे हैं। यही कारण है कि प्राचीन वियतनाम में देखें, चीन में देखें, ईरान, इराक, ग्रीस, अरब और मिस्त्र इजिप्ट में भी शिव लिंग मिलते रहे हैं। प्राचीन वियतनाम में सबसे ज्यादा नाम चम्पा लोगों का आता है। वियतनाम पहले चम्पा नाम का देश हुआ करता था।

म्पा का इतिहास

चम्पा दक्षिण पूर्व एशिया (पूर्वी Indo-china Region (हिन्दचीन) (192-1832) में) स्थित एक प्राचीन हिन्दू राज्य था। यहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार था और इसके राजाओं के संस्कृत नाम थे। चम्पा के लोग और राजा शैव थे। शैव यानी भगवान शिव को पूजने वाले। वर्तमान समय में चाम लोग वियतनाम और कम्बोडिया के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं। हिन्दू धर्म ने सदियों से चम्पा साम्राज्य की कला और संस्कृति को आकार दिया है। उनके रीतिरिवाजों पर, वास्तुकला पर, परम्पराओं में हिन्दू धर्म मिलता है। 10 शताब्दी में इस्लाम लेकर अरब व्यापारी वहां पहुंचे और इस्लाम को फैलाना शुरू किया। अपने हिन्दू पहचान के प्रति शायद चम्पा के लोग भी सजग न रहे और इसीलिए आज, कई चाम लोग इस्लाम का पालन करते हैं। वहां धर्मांतरण 10 वीं शताब्दी में शुरू हुआ, और 17 वीं शताब्दी तक समाज के अभिजात वर्ग ने भी पूरी तरह इसे अपना लिया। कनवर्टेड मुस्ल्लिम को अब बानी चाम कहा जाता है (अरबी के शब्द बानू से)। हालाँकि, आज भी वहाँ बालामोन चाम (संस्कृत के ब्राह्मण से उत्पन्न) हैं जो अभी भी अपने हिंदू विश्वास और रीति-रिवाजों का पालन करते हैं और त्योहार मनाते हैं। बालामोन चाम दुनिया में केवल दो जीवित गैर-इंडिक (भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर के) स्वदेशी हिंदू लोगों में से एक है, जिसकी संस्कृति हजारों साल पुरानी है। इनके अलावा इंडोनेशिया के बाली द्वीप के लोग भी हिंदू धर्म का पालन करते हैं।

राजवंशी इतिहास

धर्म महाराज श्री भद्रवर्मन जिसका नाम चीनी इतिहास में फन-हु-ता (380-413 ई।) मिलता है, चंपा के प्रसिद्ध सम्राटों में से है जिसने अपनी विजयों ओर सांस्कृतिक कार्यों से चंपा का गौरव बढ़ाया। किंतु उसके पुत्र गंगाराज ने सिंहासन का त्याग कर अपने जीवन के अंतिम दिन भारत में आकर गंगा जी के तट पर व्यतीत किए। फन यंग मैं (चीनी नाम) ने 420 ई। में गंगाराज की अनुपस्थिति के कारण बनी अव्यवस्था का अंत कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। यंग मैं द्वितीय के राजकाल में चीन के साथ दीर्घकालीन युद्ध के अंत में चीनियों द्वारा चंपापुर का विध्वंस हुआ। इस वंश का अंतिम शासक विजयवर्मन था जिसके बाद (529 ई।) में गंगाराज का एक वंशज श्री रुद्रवम्रन शासक बना। 605 ई। में चीनियों का फिर से विध्वंसकारी आक्रमण हुआ। अव्यवस्था का लाभ उठाकर राज्य की स्त्रीशाखा के लोगों ने 645 ई। में प्रभासधर्म और सभी पुरुषों की हत्या कर अंत में 657 ई। में ईशानवर्मन को सिंहासन दिलाया जो कंबुज नरेश ईशानवर्मन का दोहित्र था। 757 ई। में रुद्रवर्मन् द्वितीय की मृत्यु के साथ इस वंश के अधिकार का अंत हुआ।

पृथिवीन्द्रवर्मन के द्वारा स्थापित राजवंश की राजधानी चंपा ही बनी रही। इसकी शक्ति दक्षिण में केंद्रित थी और यह पांडुरंग अंश के नाम से प्रख्यात था। 854 ई। के बाद विक्रांतवर्मन तृतीय के बिना संतान मरने पर सिंहासन भृगु अंश के अधिकार में चला गया जिसकी स्थापना इंद्रवर्मन् द्वितीय अथवा श्री जय इंद्रवर्मा महाराजाधिराज ने की थी। इस अंश के समय में वास्तविक राजधानी इंद्रपुर ही था। भद्रवर्मन् तृतीय के समय में विदेशों में भी चंपा का शक्तिशाली और महत्वपूर्ण राज्य के रूप में गौरव बढ़ा। उसके विद्वान् पुत्र इंद्रवर्मन् के राज्यकाल  में 944 और 947 ई। के बीच कंबुज नरेश ने चंपा पर आक्रमण किया। 972 ई। में इंद्रवर्मन् की मृत्यु के बाद लगभग सौ वर्षो तक चंपा का इतिहास अभी अज्ञात है। इस काल में अन्नम ने, जिसने १०वीं शताब्दी में अपने को चीन के निंयत्रण से स्वतंत्र कर लिया था, चंपा पर कई आक्रमण किए जिनके कारण चंपा का आंतरिक शासन छिन्न भिन्न हो गया। 989 ई। में एक जननायक विजय श्री हरिवर्मन ने अव्यवस्था दूर कर विजय में अपना राज्य स्थापित किया था। उसके परवर्ती विजयश्री नाम के नरेश ने विजय को ही अपनी राजधानी बनाई जिसे अंत तक चंपा की राजधानी बने रहने का गौरव प्राप्त रहा। जयसिंहवर्मन् द्वितीय के राज्य में 1044 ई। में द्वितीय अन्नम आक्रमण हुआ। किंतु छ: वर्षों के भीतर ही जय परमेश्वरवर्मदेव ईश्वरमूर्ति ने नए राजवंश की स्थापना कर ली। उसने संकट का साहसर्पूक सामना किया। पांडुरंग प्रांत में विद्रोह का दमन किया, कंबुज की सेना को पराजित किया, शांति और व्यवस्था स्थापित की और अव्यवस्था के काल में जिन धार्मिक संस्थाओं को क्षति पहुँची थी उनके पुनर्निर्माण की भी व्यवस्था की। किंतु रुद्रवर्मन् चतुर्थ को 1069 ई। में अन्नम नरेश से पराजित होकर तथा चंपा के तीन उत्तरी जिलों को उसे देकर अपनी स्वतंत्रता लेनी पड़ी। चम इस पराजय का कभी भूल न सके और उनकी विजय के लिये कई बार प्रयत्न किया।

अव्यवस्था का लाभ उठाकर हरिवर्मन् चतुर्थ ने अपना राज्य स्थापित किया। उसने आंतरिक शत्रुओं को पराजित कर दक्षिण में पांडुरंग को छोड़कर संपूर्ण चंपा पर अपना अधिकार कर लिया। उसने बाह्य शत्रुओं से भी देश की रक्षा की और अव्यवस्था के कारण हुई क्षति और विध्वंस की पूर्ति का भी सफल प्रयत्न किया। परम बोधिसत्व ने 1085 ई। में पांडुरंग पर अधिकार कर चंपा की एकता फिर से स्थापित की। जय इंद्रवर्मन् पंचम के समय से चंपा के नरेशों ने अन्नम को नियमित रूप से कर देकर उनसे मित्रता बनाए रखी।

जय इंद्रवर्मन् षष्ठ के समय में कंबुजनरेश सूर्यवर्मन् द्वितीय ने 1045 ई। में चंपा पर आक्रमण कर विजय पर अधिकार कर लिया। दक्षिण में परम बोधिसत्व के वंशज रुद्रवर्मन् परमब्रह्मलोक ने अपने का चंपा का शासक घोषित किया। उसके पुत्र हरिवर्मन् षष्ठ ने कंबुजों और बर्बर किरातां को पराजित किया ओर आंतरिक कलहों तथा विद्रोहों को शांत किया। 1062 ई। में, उसकी मृत्यु के एक वर्ष के बाद, ग्रामपुर विजय के निवासी श्री जयइंद्रवर्मन् सप्तम ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसने 1077 ई। में कंबुज पर आक्रमण कर उसकी राजधानी को नष्ट किया। जयइंद्रवर्मन् अष्टम के राज्य में श्री सूर्यदेव ने, जो चंपा का ही निवसी था लेकिन जिसने कंबुज में शरण ली, कंबुज की ओर से 1190 ई। में चंपा की विजय की। चंपा विभाजित हुई, दक्षिणी भाग श्री सूर्यवर्मदेव को और उत्तरी कंबुजनरेश के साले जयसूर्यवर्मदेव को प्राप्त हुआ। किंतु शीघ्र ही एक स्थानीय विद्रोह के फलस्वरूप उत्तरी भाग पर से कंबुज का अधिकार समाप्त हो गया। श्री सूर्यवर्मदेव ने उत्तरी भाग को भी विजित कर अपने को कंबुजनरेश से स्वतंत्र घोषित किया किंतु उसके पितृव्य ने ही कंबुजनरेश की ओर से उसे पराजित किया। इस अवसर पर जयहरिवर्मनृ सप्तम के पुत्र जयपरमेश्वर वर्मदेव ने चंपा के सिंहासन को प्राप्त कर लिया। कंबुजों ने संघर्ष की निरर्थकता का समझकर चंपा छोड़ दी और 1222 ई। में जयपरमेश्वरवर्मन् से संधि स्थापित की। श्री जयसिंहवर्मन्, के राज्यकाल में, जिसने सिंहासन प्राप्त करने के बाद अपना नाम इंद्रवर्मन् रखा, मंगोल विजेता कुब्ले खाँ ने 1282 ई। में चंपा पर आक्रमण किया किंतु तीन वर्ष तक वीरतापूर्वक मंगोलों का सामना करके चंपा के राज्य से उसे संधि से संतुष्ट होने के लिय बाध्य किया। जयसिंहवर्मन् षष्ठ ने अन्नम की एक राजकुमारी से विवाह करने के लिये अपने राज्य के दो उत्तरी प्रांत अन्नम के नरेश का दे दिए। 1312 ई। में अन्नम की सेना ने चंपा की राजधानी पर अधिकार कर लिया।

उत्तराधिकारी के अभाव में रुद्रवर्मन् परम ब्रह्मलोक द्वारा स्थापित राजवंश का अंत हुआ। अन्नम के नरेश ने 1318 ई। में अपने एक सेनापति अन्नन को चंपा का राज्यपाल नियुक्त किया। अन्नन ने अन्नम की शक्तिहीनता देखकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। चे बोंग त्गा ने कई बार अन्नम पर आक्रमण किया और अन्नम का चंपा का भय रहने लगा। किंतु 1390 ई। में चे बोंगां की मृत्यु के बाद उसके सेनापति ने श्री जयसिंहवर्मदेव पंचम के नाम से वृषु राज़वंश की स्थापना की। 1402 ई। में अन्नम नरेश ने चंपा के उत्तरी प्रांत अमरावती को अपने राज्य में मिला लिया। चंपा के शासकों ने विजित प्रदेशों को फिर से अपने राज्य में मिलाने के कई प्रयत्न किए, किंतु उन्हें कोई स्थायी सफलता नहीं मिली। 1471 ई। में अन्नम लोगों ने चंपा राज्य के मध्य स्थित विजय नामक प्रांत को भी जीत लिया। 16वीं शताब्दी के मध्य में अन्नम लोगों ने फरंग नदी तक का चंपा राज्य का प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया। चंपा एक छोटा राज्य मात्र रह गया और उसकी राजधानी बल चनर बनी। 18वीं शताब्दी में अन्नम लोगों ने फरंग को भी जीत लिया। 1822 ई। में अन्नम लागों के अत्याचार से पीड़ित होकर चंपा के अंतिम नरेश पो चोंग कंबुज में जाकर बसे। राजकुमारी पो बिअ राजधानी में ही राजकीय कोष की रक्षा के लिए रहीं। उनकी मृत्यु के साथ बृहत्तर भारत के एक अति गौरवपूर्ण इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय की समाप्ति होती है।

प्राचीन वियतनाम के समाज में व्याप्त भारत की झलक 

चंपा के इतिहास का विशेष महत्व भारतीय संस्कृति के प्रसार की गहराई में है। नागरिक शासन के प्रमुख दो मुख्य मंत्री होते थे। सेनापति और रक्षकों के प्रधान प्रमुख सैनिक अधिकारी थे। धार्मिक विभाग में प्रमुख पुरोहित, ब्राह्मण, ज्योतिषी, पंडित और उत्सवों के प्रबंधक प्रधान थे। राज्य में तीन प्रांत थे - अमरावती, विजय और पांडुरंग। प्रांत जिलों और ग्रामों में विभक्त थे। भूमिकर, जो उपज का षष्ठांश (छठा हिस्सा) होता था, राज्य की आय का मुख्य साधन था। राजा मंदिरों की व्यवस्था के लिये कभी कभी भूमिकर का दान दे देता था। न्यायव्यवस्था भारतीय सिद्धांतों पर आधारित थी। सेना में पैदल, अश्वारोही और हाथी होते थे। जलसेना की ओर भी विशेष ध्यान दिया जाता था।

उदारता और सहनशीलता चंपा के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। चंपा के नरेश भी सभी विचारों का समान रूप से आदर करते थे। यज्ञों के अनुष्ठान को महत्व दिया जाता था। संसार को क्षणभंगुर और दु:खपूर्ण समझनेवाली भारतीय विचारधारा भी चंपा में दिखलाई पड़ती है। ब्राह्मण धर्म के त्रिदेवों में महादेव की उपासना सबसे अधिक प्रचलित थी। भद्रवर्मन् के द्वारा स्थापित भद्रेश्वर स्वामिन् इतिहास में प्रसिद्ध है। 11वीं शताब्दी के मध्य में देवता का नाम श्रीशानभद्रेश्वर हो गया। चंपा के नरेश प्राय: मंदिर के पुनर्निर्माण या उसे दान देने का उल्लेख करते हैं। शक्ति, गणेश, कुमार और नंदिनी की भी पूजा होती थी। वैष्णव धर्म का भी वहाँ ऊँचा स्थान था। विष्णु के कई नामों के उल्लेख मिलते हैं किंतु विष्णु के अवतार विशेष रूप से श्री राम और श्री कृष्ण अधिक जनप्रिय थे। चंपा के नरेश प्राय: विष्णु से अपनी तुलना करते थे अथवा अपने को विष्णु का अवतार बतलाते थे। लक्ष्मी और गरुड़ की भी पूजा होती थी। ब्रह्मा की पूजा का अधिक प्रचलन नहीं था। अभिलेखों से पौराणिक धर्म के दर्शन और कथाओं का गहन ज्ञान मिलता होता है। गौण देवताओं में इंद्रयमचंद्रसूर्यकुबेर और सरस्वती उल्लेखनीय हैं। साथ ही निराकार परब्रह्म की कल्पना भी उपस्थित थी। दोंग दुओंगबौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था। बौद्धधर्म के माननेवालों और बौद्ध भिक्षुओं की संख्या कम नहीं थी।

चंपा राज्य में संस्कृत ही दरबार और शिक्षितों की भाषा थी। चंपा के अभिलेखों में गद्य और पद्य दोनों ही भारत की आलंकारिक काव्यशैली से प्रभावित हैं। भारत के महाकाव्यदर्शन और धर्म के ग्रंथ, स्मृतिव्याकरण और काव्यग्रंथ पढ़े जाते थे। वहाँ के नरेश भी इनके अध्ययन में रुचि लेते थे। संस्कृत में नए ग्रंथों की रचना भी होती थी।

अब हम वियतनाम के बड़े इतिहास से परिचित हैं। इसे पढकर लगेगा ही नही कि यह देश भारत से करीब 3200 किलोमीटर दूर है। आज वियतनाम पूरी तरह बदल गया है। हिन्दू लोग अपनी संस्कृति को वैचारिक शक्ति और सैन्य शक्ति बनाने में असफल रहे। इसी कारण वहां राजवंश समाप्त हुआ। हिन्दू ताकत कम होने से दुसरे धर्म प्रभावी हुए। वियतनाम के उदाहरण से हम यह भी समझ सकते हैं की हिन्दू धर्म की राजनितिक विचारधारा और सत्ता में होना कितना जरूरी है। अगर हिन्दू राजवंश समाप्त न हुआ होता तो वहां हिन्दू धर्म आज भी होता। लेकिन सत्ता पर बोद्ध और मुस्लिम के आते ही हिन्दू धर्म समाप्त होता गया।


 

अभी कुछ दिवस पहले जो शिवलिंग मिला है वह Cham temple site की My sun sanctuary में स्थित है। यंहा पहले मन्दिर था लेकिन युद्ध की बमबारी में वो ध्वस्त हो गया। वियतनाम में बोद्ध लोगो ने हिन्दू धर्म के समाप्त हो जाने पर तमाम मन्दिरों को बोद्ध स्थान में बदल दिया था । इस वजह से कुछ मन्दिर अभी भी बचे हुए हैं क्योकि उनका रखरखाव बोद्ध भिक्षुक करते रहे हैं। कुछ मन्दिर क्षीर्ण हालत में हैं जबकि कईयों का अस्तित्व नही मिलता।



वियतनाम की हिन्दू संस्कृति का एक और रूप है जो खमेर संस्कृति, मेकोंग नदी, और भारतीय राजाओं द्वारा वंहा पर किये शासन से जिसका इतिहास जुड़ा है। उसको कम्बोडिया के इतिहास से जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए। उसकी चर्चा मैंने इस ब्लॉग में नही की है। उसके लिए अलग से कम्बोडिया पर लेख लिखूंगा।

जब जब दुनिया के अंदर बिना पूर्वाग्रह से खोज की जाएगी, जब जब धरती स्वयं अपने इतिहास को बताएगी। विएतनाम में शिवलिंग मिलने की पहली घटना नही है और न ही अंतिम। आज से करीब 4 साल पहले विष्णु की बड़ी प्रतिमा का सर का भाग मिला था। मूर्तियों के मिलने का सिलसिला अमेरिका, मेक्सिको, इंडो-चाइना क्षेत्र के सभी देशो, अरब, अफ्रीका, रूस, मंगोलिया, जर्मनी हर जगह जारी है। जर्मनी में मिली मूर्ति को तो वैज्ञानिकों ने 32 हजार वर्ष पुरानी बताया था।  



इसी के साथ झूठ साबित होती कई थ्योरी

किसी भी देश के लोगों के अंदर अपनी संस्कृति के प्रति, इतिहास के प्रति गर्व होता है। यह गर्व उनके स्वाभिमान से जुड़ा होता है। एक स्वाभिमानी राष्ट्र को अपने अधिकार में लेना आसान नही होता। जब मुस्लिम भारत में आये तो उनका यंहा राज स्थापित करना आसान नही था। भारत में इतिहास के ढेरों ऐसे प्रसंग थे जो हिन्दुओं में साहस भर देते थे। इसी कारण मुस्लिम राजाओं के खिलाफ सन 1200 से लेकर 1757 तक ऐसा कोई सा दशक नही रहा जब हिन्दू राजाओं ने अपनी आवाज न उठाई हो। मुस्लिमों ने इसीलिए भारतीय गर्व के प्रतीक इतिहास को कुचला। हमारी भावनाएं जिस मन्दिर से ज्यादा जुडी थी उनको ध्वस्त किया। इसलिए कश्मीर, पंजाब, हरियाणा का कुरुक्षेत्र, राजस्थान का पुष्कर, उत्तर प्रदेश में मथुरा, वृन्दावन, काशी, ,प्रयागराज, और अन्य सभी मुख्य मन्दिर ध्वस्त किये गये। इसके पीछे एक ही कारण था हिन्दुओं का गर्व समाप्त करना। बाद में अंग्रेजो ने इतिहास को दूसरी तरह से समाप्त किया। उन्होंने किताबें लिखीं जिसमे जानबुझकर इतिहास बदल दिया। तमाम युद्धों को, कहानियों को, हिन्दू ग्रंथों को अपने अनुसार लिखा। इससे बिना कुछ तोड़े और लम्बे समय तक भारत को अपने ही इतिहास से भ्रमित करने में वो सफल हो गये। आज़ादी के बाद वामपंथी इतिहासकार आ गये। इन्होने वही कार्य जारी रखा। सिन्धु घाटी सभ्यता को भारत से जोडकर सम्पूर्ण हिन्दू संस्कृति को मात्र 4000 वर्ष पहले तक समेत दिया। यानि बुद्ध के जन्म लेने से मात्र 2500 वर्ष पहले तक। महाभारत और रामायण को काल्पनिक करार दिया गया। आर्य बाहर से आये, इस थ्योरी को खूब प्रचलित किया गया। भारत को इन थ्योरी को मानने को मजबूर सरकारों ने किया और तमाम सिलेबस में यही पढ़ाया गया। हिन्दू संस्कृति का इतिहास को हिन्दुओं से ही दूर रखा गया। इसीलिए आज हमे वियतनाम में मिले शिवलिंग को देखकर आश्चर्य होता है क्योकि हम स्वयं उसे भूल चुके थे।

अब धीरे धीरे परिवर्तन आ रहा है। जब इंडोनेशिया, वियतनाम और कम्बोडिया जैसे देश अपने प्राचीन इतिहास को ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं तो हमे भी आगे बढकर अपनी संस्कृति को जानना चाहिए। कम्बोडिया भारत को हमेशा हिन्दू देश के रूप में देखता है क्योकि उस का भारत से वही रिश्ता है। वियतनाम के लोग आज भारत को उन्ही पुराने इतिहास के साथ अपने साथी के रूप में देखते हैं। हमे चाहिए कि हम भी अपनी पहचान हिन्दू को बनाएं और अपनी संस्कृति को बढ़ावा दें।    

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