दुनिया को भारतीय विचारों की आवश्यकता


भारत की संस्कृति न सिर्फ अपनी प्राचीनता के लिए विश्व में सभी का ध्यान आकर्षित करती है बल्कि अपनी वैज्ञानिकता को लेकर भी दुनिया में सबसे अलग स्थान रखती है. यूरोप के अंदर आये जागरण काल और भारत में तभी आये गुलामी काल का दुष्प्रभाव यह हुआ कि आधुनिकता की तरफ तेजी से बढ़ते यूरोप ने भारत को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया. भारतीय संस्कृति या कहें हिन्दू संस्कृति शताब्दियों पहले से फारसियों, यूनानियों और मिस्त्र के लोगों के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण साझा करती आई है लेकिन इतिहास को दरकिनार करके योजनागत तरीके स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की जो अंधी दौड़ यूरोप सभ्यता ने शुरू की उसने भारत को अपनी सोच में एक पिछड़ा और सांप सपेरो के देश तक सिमित कर दिया.


वर्तमान में कोरोना वायरस से पूरी दुनिया भयभीय है. विश्व में इसके इलाज न होने के कारण इससे बचाव को प्राथमिकता दी जा रही है. हाथ मिला कर अभिवादन करने वाली दुनिया कोरोना के कारण अब यह मान चुकी है कि वाकई अभिवादन की यह प्रक्रिया ठीक नही है. भारतीय पारम्परिक अभिवादन नमस्ते को लेकर दुनिया में अभियान चल गया है. स्वयं इजरायल के प्रधानमन्त्री ने अपने नागरिकों को नमस्ते अपनाने के लिए कहा है. ऐसे में यह कहना कोई गल
त नही होगा कि अपनी ही धुन में सवार इस दुनिया को संकटकाल में हमेशा भारत की ही याद आती है. 

स्वच्छता को लेकर जो सन्देश हमारी परम्पराओं और आम रीतिरिवाजों में झलकते हैं वो दुनिया में दूसरी जगह की तुलना में सबसे अधिक है. वर्तमान में एक दुसरे के सम्पर्क से फैल रहे कोरोना वायरस के समय ही क्यों, भारत तो हमेशा से वो व्यवस्था अपनाता आया है जो हमेशा मानव जीवन को रोगों से दूर रखेगी. कुछ विचारों को दुनिया ने अपनाना शुरू कर दिया है, कुछ को जल्द अपनाएगी और कुछ को लेकर अभी जागृति आना बाकी है. 


रोगों के रोकथाम के लिए पुरातन काल से ही अपने घर में चप्पल-जूतों के बिना प्रवेश करना हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है. यही आचरण जैन और बोद्ध धर्म में भी झलकता है इसलिए पूर्वी एशिया के कई देशों में यह चलन स्थापित है. भले ही आधुनिक मेडिकल व्यवस्था यूरोप में मौजूद हो लेकिन वो भी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि घर में बिना चप्पलों के प्रवेश किया जाये. 


यूरोप सभ्यता जिसे पश्चिमी सभ्यता कहा जाता है, ने आधुनिकता को प्राप्त करने के लिए वो सभी नियम ताक पर रख दिए जो प्रकृति संतुलन के लिए जरूरी थे. प्रथ्वी को माँ कहने वाली भारतीय संस्कृति की उपेक्षा करके यूरोप भले ही तेजी से तथाकथित विकास के पथ पर अग्रसर हो गया लेकिन इसके दुष्प्रभाव आज सामने आ रहे हैं. जिस प्रकार नमस्ते को लेकर दुनिया सहमत हो रही है उसी प्रकार अगर अन्य विचारों को लेकर भी सहमत हो जाये तो विश्व में कई समस्याओं का अंत हो जायेगा. स्वयं हित को आगे लेकर यूरोपीय सभ्यता विकास के मार्ग पर तेजी से बढ़ी लेकिन अन्य जीव जन्तुओं के बारे में तनिक विचार नही किया. अगर भारतीय संस्कृति की बात करें तो यजुर्वेद (36.18) में मित्रस्याहं भक्षुसा सर्वाणि भूतानि समीक्षे का संकल्प दोहराया गया है यानि सभी प्राणियों के प्रति सह्रदयता का परिचय देना ही जीवन का सही लक्षण है. पश्चिम में अभी तक यह विचार नही था लेकिन हर वर्ष सैकड़ों प्रजातियों के लुप्त होने की वजह से वहां जागृति आ रही है. एक तरफ ऋग्वेद (1.23.248) कहता है “अप्सु अन्तः अमृतं,अप्सु भेषजं” अर्थात जल की शुद्धता-स्वच्छता बनाये रखनी चाहिए. जल में अमृत है, जल में औषधि गुण विद्यमान रहते हैं. पदम पुराण (96.7.8) कहता है “सुकुपाना तड़ागानाप्रपाना च परंतप, सरसां चैव भैत्तारो नरा निरयागमिन:” यानि जो व्यक्ति तालाब, कुओं, अथवा झील के जल को प्रदूषित करता है, वह नरकगामी है. इससे पता चलता है कि जल के प्रति भारतीयों के विचार क्या रहे हैं. ऋषि मुनियों ने बहुत पहले ही जल स्त्रोतों की स्वच्छता को अपनी परम्परा में शामिल कर लिया था. दूसरी तरफ पश्चिमी सभ्यता ने जल स्त्रोतों को दूषित करने की प्रक्रिया शुरू की. औद्योगिक कचरे का निपटान नदियों के जरिये करने का तरीका पश्चिम से ही तो आया है. हमारे वेदों-पुराणों में पांच तत्वों जल, थल, आकाश, वायु और अग्नि के संतुलन को बनाये रखने के लिए काफी कुछ कहा है. वायु की शुद्धता के लिए यज्ञ हमारी परम्परा का हिस्सा रहा है. नदियों की शुद्धता व् उनके संरक्षण के लिए उन्हें माँ की संज्ञा दी गयी. भूमि को भी माँ कहकर उसके अत्याधिक दोहन को पाप कहा गया. भारतीय विचारों ने भूमि के स्वामी होकर कार्य करने को कभी नही कहा बल्कि हम सब इस भूमि की संतान हैं और इसलिए हाथ जोड़कर इससे विभिन्न वस्तुओं की मांग करने को कहा है. अत्याधिक दोहन, लगातार निकलते खनिज, नदियों को रोककर बिजली बनाना, पेड़ों की कटाई इन सबसे जो दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं उससे यही लगता है कि भारतीय विचारों को वैश्विक स्तर पर अब अपना लेना चाहिए. अत्यधिक दोहन पर वेदों के एक मन्त्र को वैश्विक स्तर पर पहचान मिली है “पूर्णभद: पूर्णामिदं पूर्णात्पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते” – इसका स्पष्ट आशय है कि हम प्रकृति से उतना ही ग्रहण करें जितना हमारे लिए आवश्यक हो तथा प्रकृति की पूर्णता को क्षति न पहुंचे.  


आज  दुनिया के सामने संकट सिर्फ पर्यावरण क्षेत्र से, जल प्रदुषण व् वायु प्रदुषण के द्वारा ही नही आया बल्कि क्षेत्रीय सीमा बढ़ाने, धार्मिक उन्माद और स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए बहुत रक्त बहा है. दो दो विश्व युद्ध देख चुकी दुनिया में क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि पश्चिमी विचारों का अनुसरण करके तीसरा विश्व युद्ध टल जायेगा. एक दुसरे के अस्तित्व को लेकर जहाँ पश्चिमी जगत एक दुसरे पर बंदूक ताने बैठा है वंही भारतीय संस्कृति में अर्थवेद में एक ऋषि सभी का अस्तित्व इस प्रथ्वी पर स्वीकार करते हुए कह रहा है “जनं बिभ्रति बहुधा विवाचसं, नाना धर्माण पृथवी यथौकसम” – इस प्रथ्वी पर जो मनुष्य रहते हैं वे भिन्न भिन्न भाषाएँ बोलते हैं और भिन्न भिन्न धर्मों को मानते हैं तथा यह प्रथ्वी उन सभी का घर है.


जिस प्रकार जनसंख्या में वृद्धि हुई, दुनिया के सामने अन्न संकट आया. परम्परागत तरीके से जितना उपज होती है उससे अधिक प्राप्त करने के लिए रासायनिक पदार्थों का उपयोग शुरू किया गया. शुरू में उत्पादन बढ़ा तो भारतीय कृषि पद्धति को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा. भारतीय संस्कृति कृषि और पशुधन को साथ लेकर चलने को कहती है ताकि कृषि में गायों का गोबर का इस्तेमाल खाद के तौर पर हो. पशुओं के गोबर से प्राप्त खाद के द्वारा भूमि को नाइट्रोजन, पोटेशियम, फोस्फोरिक एसिड, अमोनिया आदि की स्वाभाविक पूर्ति होती है. इससे उपजाऊपन भी बढ़ता है अपितु पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढती है. पश्चिमी विचारों ने पशुपालन को मांस के लिए सिमित कर लिया. कृषि को रसायन के भरोसे कर लिया. शुरू में उत्पादन बढ़ा लेकिन भूमि की उपजाऊपन कुछ वर्षों में नष्ट हो गया. रासायनिक उर्वरक के लगातार इस्तेमाल से कई बीमारियाँ बनने लगी जिनका अभी तक ठोस इलाज मौजूद नही है. आज फिर से वही भारतीय कृषि पद्धति को आगे रखकर पश्चिम ने कृषि शुरू की.


विष्णु पुराण कहता है “दशकूपसमा वापी दशवापीसमो ह्रदः, दशह्रदसमः पुत्रः दशपुत्र-समो द्रुमः” -  यानि दस कुएं खोदने से जितना हित होता है वह एक बावड़ी बनाने से हो जायेगा. दस बावड़ी बनाने से जितना हित होता है उतना एक तालाब बनाने से हो जायेगा. ऐसे ही दस तालाब के समान एक पुत्र है और ऐसे दस पुत्रों से समान एक पेड़ है. अर्थवेद का प्रथ्वी सूक्त प्रत्येक पंक्ति में पर्यावरण और परिस्थिति की समूची अवधारणा का मूर्तरूप है. गिरयस्ते पर्वता हिमवन्त:, अरण्य ते पृथिविस्योनमस्तु   - वे पर्वत जिनके ग्लेशियर नदियों से हमे जल देते हैं, वे जंगल जो प्राणदायक हैं, हमारे लिए कल्याणकारक हों. ये स्तुति मानव के प्रकृति के प्रत्येक घटक के प्रति अपनत्व का भाव रखने को कहती है. 


विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का पश्चिमी दृष्टिकोण तो वहीं पेड़ो में देवत्व देखने वाला और पेड़ो की कटाई का विरोध करने वाला भारतीय दृष्टिकोण, दोनों में से आज दुनिया को किसकी जरूरत है आज हर कोई जानता है. भारत के योग का डंका तो दुनिया में बज ही चुका है. अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के जरिए पूरी दुनिया योग को अपना रही है. हाल ही में कोरोना वायरस के फैलने में शरीर के रोग प्रतिरोधक क्षमता की भूमिका पर जानकारी आई है. जिसमें कहा गया है कि जिस व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है, वह कोरोना से बच सकता है. ऐसे में नमस्ते की तरह ही योग के जरिए अपने शरीर को मजबूत बनाने का अभियान भी विश्व में चले तो कोई आश्चर्य नही है. मैं कहूँगा कि सिर्फ कोरोना वायरस के द्वारा आये संकटकाल के समय भारतीय अभिवादन, भारतीय दाहसंस्कार ही मत अपनाईये बल्कि पर्यावरण के प्रति, प्रकृति के प्रति, समस्त जीव जन्तुओं के प्रति, सभी वर्गों के प्रति जो विचार भारत ने दिए हैं वो सभी विश्व को अपनाने चाहिए. 

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