स्वामी विवेकानंद की महत्वता



स्वामी विवेकानंद के 157वें जयंती पर आज देश-दुनिया में भारतीय समुदाय व् भारतीय सनातन विचारों के प्रेरणा लेने वाले अनगिनत लोगों ने स्वामी जी के कार्यों को याद किया, उनके स्वप्न पर विचार किया, उनके कथनों को नई पीढ़ी को बताया और भविष्य में विवेकानंद जी द्वारा तय किये गये लक्ष्यों को कैसे प्राप्त करना है, पर चिंतन किया.

स्वामी विवेकानंद युवा शक्ति के प्रतीक है और उनकी जयंती राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में मनायी जाती है. युवा दिवस के मौके पर पुरे भारत में युवाओं से सम्बन्धित कार्यक्रम हुए तो कंही संगोष्ठी द्वारा राष्ट्र के लिए जीवन जीने को प्रेरित किया गया.
स्वामी विवेकानंद जयंती को सिर्फ पुष्प अर्पित करने के दिन तक सिमित रखना हमारी बहुत बड़ी भूल होगी. यह हमारा सौभाग्य है कि स्वामी विवेकानंद जैसा व्यक्तित्व उस समय भारत में उभर कर आ गया जब उसकी बहुत जरूरत थी.

करीब 800 सालों से लगातार चले आ रहे इस्लामिक राज जिसमे भारत की संस्कृति और विचारों को कुचलने का भरसक प्रयास किया गया. भारत की आत्मा जोकि सनातन धर्म है, उसपर सीधा वार हुआ. भारतीय विचारों, परम्पराओं, मूल्यों के नीव के रूप में विद्यमान तमाम मठो, मन्दिरों, गुरुकुलों को ध्वस्त कर दिया गया. भारत के लोग अपनी पूजा पद्धति से विमुख होकर इस्लाम को अपना लें, सर्वे भवन्तु सुखिनः यानि सभी सुखी रहें जैसे मूल्यों को त्यागकर सिर्फ अल्लाह ही श्रेष्ट है जैसे कट्टर विचारों को अपनाने पर विवश किया गया, भारतीय जनता के भक्ति और आस्था के प्रतीक व् भारत की चिर पुरातन इतिहास के प्रत्यक्ष गवाह मन्दिरों जिसमे मुख्यतः श्री राम मन्दिर अयोध्या, कृष्ण मन्दिर मथुरा, काशी विश्वनाथ हैं जैसे तमाम मन्दिरों को तोड़कर मस्जिद बना दी गयी. भारतीय सनातन धर्म की यह विशेषता है कि इसके पास आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक नेतृत्व के एक सिलसिलेवार रूप से कड़ी मौजूद रही है. ऐसा नेतृत्व किसी अन्य सम्प्रदाय या पंथ में नही है. इस्लामिक राज में आर्थिक – सामाजिक -  राजनैतिक नेतृत्व और सहभागेदारी वाले नीवं पर जोरदार प्रहार हुआ और सामाजिक व् राजनैतिक नेतृत्व को जर्जर कर दिया गया. इसके बाद 200 के ब्रिटिश काल में आर्थिक रूप से भी भारत को जर्जर कर दिया गया. यंहा पर उत्पादन हो ही न सके, उसके लिए कानूनन बाध्य किया गया. भारत के लोग भारतीय मूल्यों/विचारों को पढ़ ही न सके, इसके लिए सभी गुरुकुलों पर प्रतिबन्ध लगाकर अंग्रेजी स्कूल खोल दिए गये. भारत के लोग भारतीयता को भूल जाएँ और यूरोपियन सभ्यता को अपना लें या कहें ईसाईयत को अपना लें, इस पर विवश किया गया.

अंग्रेजो के काम करने का तरीका इस्लामिक राजाओं से अलग था. इस्लामिक राजाओं ने ताकत के बल पर अपना काम किया ठीक वैसे ही जैसे एक विशाल पेड़ को कुल्हाड़ी के जरिए काटने की कोशिश की जाये. जबकि अंग्रेजो ने यही काम साम, दाम, दंड, भेद की नीति को अपनाकर किया. यानी एक विशाल पेड़ को काटने के लिए सिर्फ कुल्हाड़ी का इस्तेमाल ही नही किया बल्कि उसकी जड़ काटकर व् उसमे जहर डालकर सुखाने जैसा काम किया.

इस्लामिक अत्याचार से उभरने को समय समय पर कई भारतीय राजा उभरे, चाहे वो उत्तर में सिख हों, मध्य में मराठा, दक्षिण में विजयनगर सम्राज्य. अंग्रेजो से भी लड़ाई लगातार जारी रही लेकिन भारत 1850 आते आते जर्जर हो चला था. सन 1857 में एक क्रांति हुई, जोकि पूरा दम लगाकर लड़ी गयी लेकिन कारण जो रहे हों, यह असफल हो गयी. भले ही यह असफल हो गयी, लेकिन इस क्रांति पर लिखी सावरकर की पुस्तक ‘भारत का स्वतंत्रता समर’ में बताया गया है कि इस क्रांति को करने में किस प्रकार भारतीय जनमानस ने एक बड़ी कोशिश की थी.

एक असफल कोशिश 1857 के बाद भारत में एक प्रकार से स्थिरता आ गयी. अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ खड़ा होने के लिए छुटपुट घटनाएँ जरुर हुई लेकिन  कोई भी ब्रिटिश साम्राज्य को तनिक भी हिला दे ऐसी कोइ कोशिश नही हुई. अब जब भारत के पास राजनैतिक नेतृत्व बचा नही, आर्थिक तौर पर हम जर्जर हो चुके थे, सामाजिक तौर तरीके बिगड़ चुके थे, समाज गरीबी से जिकड़ा हुआ था, भूख से बेहाल था ऐसे में इस समाज को, भारत को दोबारा कैसे खड़ा किया जाये, टूटे हुए मन को कैसे संभाला जाये, मरे हुए स्वाभिमान को दोबारा कैसे जागृत किया जाये, यह सबसे बड़ा सवाल था.
अगर यही प्रतिकूल स्थितियां किसी भी देश के सामने होती तो शायद वो देश हमेशा के लिए घुटने टेक देता, और यही ब्रिटिश लोगों को भी लगा कि भारत को जिस तरह से उन्होंने बर्बाद किया है, यह देश दोबारा खड़ा नही हो पायेगा और न ही उनका राज यंहा से कभी समाप्त होगा. इसके बाद उन्होंने भारत से पैसा इंग्लेंड ले जाना कम करके यंही स्थायी निवास बनाने, आदि में खर्च करने लगे क्योकि वो निश्चिंत थे की भारत अब नही उठ सकेगा. 
भारत के पास एक ऐसी शक्ति है जो किसी के पास नही वो है अध्यात्म. अध्यात्म भारत की रीढ़ है. अध्यात्म के द्वारा भारत में विभिन्न पन्थ, भाषा, रंग रूप, कार्य, रहन सहन होने के बाबजूद एकता रही है. भारत के पास जब कुछ नही था, तब सिर्फ अध्यात्म के द्वारा ही भारत के जनमानस को दोबारा जागृत किया जा सकता था. हमारे इतिहास, सनातन विचारों/मूल्यों को अगर हम पढ़े और समझे तो भारत गरीबी, भुखमरी के बाबजूद स्वाभिमान के जगने के कारण और अपनी मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम व् कर्तव्य के बोध हो जाने के कारण विदेशी दासता के विरुद्ध खड़ा हो सकता है, यह उस समय की सच्चाई थी. 1857 की असफलता के बाद इसी अध्यात्म के जरिए भारतीय जनमानस में चेतना का प्रसार करने का कार्य स्वामी विवेकानंद ने किया.

12 जनवरी 1863 को जन्मे नरेंद्र ने 1887 में सन्यास ग्रहण कर लिया और सम्पूर्ण जीवन भारत भूमि के लिए दे दिया. सिर्फ 24 वर्ष की आयु में अपने देश व् समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध नरेंद्र को हो गया और इसमें एक बड़ी भूमिका 1881 में हुई राम कृष्ण परमहंस से प्रथम मुलाकात ने निभाई.

स्वामी जी भारत की हालत और विदेशी दासता पर गंभीर थे और एक नयी चेतना का प्रसार करने के लिए उन्होंने 1890 के आसपास पुरे भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की. उनके जन्हा जन्हा कदम पड़े वंहा अपने धर्म के प्रति, अपने राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का बोध कराने के लिए व् जनमानस को जागृत करने के लिए काफी कार्य हुआ. बंगाल से हिलामय की उंचाईयों में फिर पश्चिम में मौजूदा पाकिस्तान और बाद में महाराष्ट्र होते हुए दक्षिण में गये. और कन्याकुमारी स्थित शिला पर उनका ध्यान मगन हो जाना और एक नये और महान कार्य के लिए समर्पित हो जाने की कहानी पूरी दुनिया जानती है. स्वामी विवेकानंद एक मिशन ने रूप में अपने कार्य को जारी रखना चाहते थे लेकिन शायद वो जानते थे कि उनके पास समय बहुत कम है. इसलिए उन्होंने यह कहा था कि अगर उन्हें अपने जैसे 100 युवा मिल जाएँ तो वो भारत को बदल देंगे. उनका कार्य जारी रहता इसी बीच अमेरिका के शिकागो में होने जा रहे विश्व धर्म सम्मेलन के बारे में उनको बताया गया और उनसे भारत के सनातन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में दरअसल सनातन धर्म के रूप में न कहकर भारत के प्रतिनिधि के रूप  में कहा जाये तो ठीक रहेगा, वो वंहा जाए ऐसा आग्रह किया गया. मई 1893 में अमेरिका की तरफ उन्होंने यात्रा प्रारम्भ की और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो पहुंचे. एक सन्यासी भेष में अमेरिका से अनजान व्यक्ति जिसके पास ज्यादा धन भी नही, उसकी स्थिति क्या होगी यह हम समझ सकते हैं. भारतीय ज्ञान, विचारों, मूल्यों से भरे एक व्यक्ति ने अमेरिका की धरती पर कदम रखा, शायद यह अमेरिका के लिए बहुत बड़ा सौभाग्य था. जिनसे भी स्वामी जी की वंहा भेंट हुई, वो सभी लोग स्वामी जी से न सिर्फ प्रभावित हुए बल्कि इनके शिष्य बन गये.


विश्व धर्म सम्मेलन कहने को तो दुनिया भर के अलग अलग पन्थो, सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन था पर इसका एक हित इसाइयत की श्रेष्ठता दिखाने से जुड़ा था और यह बताने से भी की यूरोप और अमेरिका के लोग ही सभ्य हैं, इन्होने ही सब कुछ दुनिया को दिया है बाकि दुसरे लोग असभ्य हैं.

कारण कुछ भी रहे हों, लेकिन इतना बड़ा मंच जब भारत को अपनी बात दुनिया भर में पहुँचाने के लिए मिला था तो स्वामी जी ने इसका उपयोग किया. उनका प्रथम व्याख्यान जोकि 11 सितम्बर को हुआ वो आयोजन समिति द्वारा दया स्वरूप दिए गये बेहद कम समय में हुआ. आयोजन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी न होने के कारण स्वामी जी अपने भाषण से पहले होने वाली जरूरी पंजीकरण नही करा सके थे इसलिए 11 सितम्बर को उन्हें सिर्फ इतना समय दिया गया जिससे वो अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें.


जब स्वामी विवेकानंद ने अपनी बात रखना शुरू किया तो दुनिया देखती रह गयी. जितना समय उन्हें बोलने के लिए दिया गया उतना समय तो सिर्फ तालियाँ ही बजती रही. दुनिया को भारत अपने ज्ञान के सागर से कुछ बुँदे दे रहा था और दुनिया अभिभूत होकर सिर्फ बूंदों को अंगीकृत करने को बेताब थी. भारतीय आदर्श विचारों और मूल्यों की जो झलक बेहद कम शब्दों में स्वामी जी ने वंहा दिखाई वो दुनिया भर के लिए अचरज बन गया और दुनिया भर के पन्थ, सम्प्रदाय एक पल में भारत के विचारों के सामने बौने हो गये. स्वामी विवेकानंद ने जिस तरह अपनी बात को रखा उसमें सर्व धर्म समभाव की बात भी थी, भारत के हजारों लाखों साल पुराने इतिहास की बात भी थी और सबसे अलग श्रेष्ठता के साथ दूसरों को स्वीकार करने की धारणा भी थी.

इस एतिहासिक व्याख्यान ने भारत के बारे में सोचने का नजरिया दुनिया का बदल दिया और अगले दिन जब मीडिया ने इस सम्मेलन की खबर छापी तो विवेकानंद का भाषण उसमे मुख्य था. मीडिया ने स्वामी जी को “Cyclonic monk from India” कहा. एक अख़बार Newyork Herald ने छापा कि “Vivekanand is undoubtly the greatest figure in the parliament of religion. After the hearing him, we feel how foolish it is to send missionaries to this learned nation” यानि बिना किसी संशय के विवेकानंद धर्म सम्मेलन में सबसे महान व्यक्तित्व हैं. उनको सुनने के बाद हम मानते हैं कि एक साक्षर देश में मिशनरीज को भेजना बड़ी मुर्खता है.

स्वामी विवेकानंद ने तब दुनिया में व्याप्त भारत की जर्जर छवि को बदलकर एक महान राष्ट्र की बना दी. 27 सितम्बर को दुसरे और अंतिम व्याख्यान के बाद स्वामी जी दुनिया में प्रसिद्ध हो गये और भारत की तरफ लोग आकर्षित हुए. इसके बाद कई विषयों को लेकर अमेरिका की कई विश्वविद्यालयों  में उनके भाषण हुए. कई सामाजिक संगठनों के द्वारा उनको सुनने के लिए संगोष्ठियाँ आयोजित हुई. जंहा भी स्वामी जी गये वंहा लोगों ने भारत को जाना, इसकी संस्कृति को जाना और स्वामी जी के शिष्य बन गये.
अमेरिका के बाद यूरोप की यात्रा हुई. यूरोप भी भारत के सन्यासी को पाकर मानो ख़ुशी से झूम उठा. जिन सवालों के उत्तर तब यूरोपीय समाज के पास नही था, उनके धार्मिक पुस्तकें क्या करना है,, यह तो बताती थी लेकिन क्यों करना है नही बताती थी. जीवन में आई समस्याओं को लेकर उनके पास जिस ज्ञान का शून्य था उसको विवेकानंद ने भर दिया. उनके व्याख्यान सुनने भीड़ उमड़ती थी. नेपाल, श्री लंका के बाद 1897 में भारत आये. दुनिया भर में भारतीय सन्यासी की चर्चा जब भारत में पता चली तो यंहा की मीडिया भी प्रमुखता से छापने लगती. भारत विवेकानंद जी का मानो इंतजार कर रहा हो. रामेश्वरम में भव्य स्वागत हुआ. 1 मई 1897 को उन्होंने अपने लक्ष्य जिसपर वो अमेरिका यात्रा से पहले लगे थे पर दोबारा कार्य प्रारम्भ करते हुए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. इसके बाद 1899 में अमेरिका यात्रा, 1900 में यूरोप व्  विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा की. स्वामी विवेकानंद की इन यात्राओं का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि हर जगह भारत के विचारों से प्रेरित लोगों के सेंटर स्थापित हुए. भारत की संस्कृति का बिना किसी लालच और दंड का उपयोग करते हुए (जैसा कि उस समय भारत में ईसाई मिशनरीज किया करती थी) उसका प्रचार और प्रसार किया. भारत के अध्यात्म को दुनिया भर में ले गये साथ ही भारत में जनमानस में चेतना का प्रसार करने का कार्य जारी रहा. एक सन्यासी के रूप में पुरे देश में उनकी यात्राओं ने लोगों को प्रेरणा दे और जो स्थिरता ब्रिटिश विरोधी कार्यों में आ गयी थी वो समाप्त हो गयी.

 स्वामी जी अच्छी तरह जानते थे कि भूखे लोगों के हाथ में हथियार देकर युद्ध  नही लड़ा जाता इसलिए उन्होंने सारा लक्ष्य भारतीय जनमानस को समस्याओं से उभारने में समाहित किया. उन्होंने भारत में उन सब रिवाजों, परम्पराओं का विरोध किया जिनके लिए अब भारत में जगह नही होनी चाहिए. उनका मानना था कि विदेशी ताकत से लड़ने के लिए राष्ट्र में एकता का भाव होना चाहिए और जो भी आपसी एकता को नुकसान पहुंचा रही है उसको उखाड़ के फ़ेंक दो. हिन्दू धर्म को सनातन इसलिए ही कहते हैं कि इसमें समय के अनुसार ढलने की स्वतंत्रता है. पुराने से पुराने और नये से नये विचारों को रखने वाला ही  सनातन धर्म कहलाता है.

स्वामी जी ने भारतीय समाज को बाहर निकलने का आह्वान किया और राष्ट्र के लिए कार्य करने व् जीने के लिए कहा. उन्होंने प्रगतिशील विचारों के साथ एकता स्थापित करने का प्रयास किया जोकि समय की जरूरत थी. यह स्वामी जी का ही प्रभाव था कि जब महात्मा गाँधी ने आन्दोलन किये तो बहुत बड़ी संख्या में भारतीय जनमानस घर से बाहर निकला. स्वामी जी के विचारों ने कई लेखकों, विचारकों को जन्म दिया. बौद्धिक क्रांति शुरू हुई. ब्रिटिश साम्राज्य की नीव पर वार हुए. स्वामी जी के विचारों में सबसे अहम था युवाओं की भूमिका. उन्होंने युवा शक्ति को सबसे पहले पहचाना. राष्ट्र के लिए युवा क्या कुछ कर सकते हैं, उन्होंने इस पर बहुत बताया. राष्ट्र के लिए उसके युवा अनमोल धरोहर है, अगर युवा शक्ति ठान ले तो क्या नही हो सकता, इन्ही विचारों ने उनको युवा शक्ति का ब्रांड अम्बेसडर बना दिया. उनको युवाओं के बेहतर स्वास्थ्य पर जोर दिया तो फुटबॉल खेलने को प्राथमिकता देते हुए जीवन में खेल और व्यायाम की जरूरत को बताया. युवाओं के स्वास्थ्य के आलावा ज्ञान और चरित्र पर उन्होंने जोर दिया.
रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि “अगर आपको भारत को जानना है तो स्वामी विवेकानंद को पढो”

जिस अतीत से निकलकर राष्ट्र भविष्य की सीढी चढ़ रहा है, उस अतीत को अस्वीकार करना बुद्धिता नही है. अतीत की नीव पर ही राष्ट्र का निर्माण होगा. युवा वर्ग में यदि अपने विगत इतिहास के प्रति कोई चेतना न हो तो उनकी दशा प्रवाह में पड़े एक लंगरहीन (जिसका कोई रुकने का लक्ष्य न हो) नाव के समान होगी. ऐसे नाव कभी अपने लक्ष्य पर नही पहुंचती. हमारा आगे बढना लेकिन कोई लक्ष्य न होना यह हमारी प्रगति की निष्फलता को दर्शाता है. इन विचारों के साथ स्वामी जी ने राष्ट्र पुनर्निर्माण की आवश्यकता और राष्ट्र के लक्ष्य तय होना, दोनों पर जोर दिया है. आज भारत में राष्ट्र पुनर्निर्माण करने के लिए विश्वगुरु लक्ष्य के साथ दुनिया का सबसे बड़ा विद्यार्थी संगठन अपना कार्य लगातार कर रहा है.

स्वामी जी के द्वारा किये गये कार्य अद्वितीय थे. स्वामी जी के पास विचार थे, उन्होंने कार्य भी किया लेकिन समय कम था. केवल 39 वर्ष की अल्पायु में स्वामी विवेकानंद इस दुनिया को छोडकर चले गये. स्वामी विवेकानंद ने कहा था की उन्नति का आधार स्वाधीनता है. उनके ये शब्द हजारों क्रांतिकारियों को जन्म दे गये. सावरकर ने जो विचार दिए वो विवेकानंद जी उनके मूल हो सकते हैं. हजारों वर्ष की गुलामी के बाद भारत अपने को भूल चुका था, उसको दोबारा अपने ज्ञान-अध्यात्म से परिचय कराने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही जाता है.

स्वामी विवेकानंद के कार्यों को आज आगे बढ़ाने की जरूरत है. स्वाधीनता प्राप्त हो चुकी है, अब राष्ट्र पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी हमारे कंधों पर है. हजारों वर्ष की गुलामी के बाद जर्जर पड़े घर की हालत ठीक करने का समय है. फिर से आर्थिक राजनैतिक और सामाजिक नेतृत्व खड़ा करने की जिम्मेदारी है. भारत के पास मजबूत से मजबूत राजनैतिक नेतृत्व हो यह हमे सुनिश्चित करना है. भारत के मजबूत से मजबूत आर्थिक हालात हो यह हमे सुनिश्चित करना है. भारत के समाज में एकता और विचारो/परम्पराओं का प्रवाह लगातार विद्यमान रहे, संस्कृति जीवंत रहे, यह हमे सुनिश्चित करना है. भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा युवा राष्ट्र है. युवाओं के कंधे पर ही देश का भविष्य है, यह बात अच्छी तरह देश के हर युवक-युवती को समझनी होगी. हमारे कार्य करने, राष्ट्र पुनर्निर्माण के लिए चिंतन करने का सेंटर हमारे विद्यालयों-महाविद्यालयों को बनाना होगा. तोड़ो नही जोड़ो की नीति से राष्ट्रहित के साथ युवाओं को अपनी पढाई के साथ देश में क्या हो रहा है, इसपर पैनी नजर रखनी होगी.

देश के सामने आज क्या समस्याएँ है इसपर सोचना होगा. आने वाले भविष्य में क्या चुनौतियाँ उभर सकती हैं, उनपर आज से ही कार्य करना होगा. देश के सामने क्या खतरे हैं, उनको समाप्त करना होगा. भविष्य में भी कोई खतरा न उत्पन्न हो उसपर कार्य करना होगा. संगठन हर किसी के लिए जरूरी है, लेकिन अगर हमे लगता है कि हालात हमारे अनुसार नही है तो एकला चलो रे की नीति अपनानी ही क्यों न पड़े, लेकिन राष्ट्र के लिए हर युवा को कार्य करना होगा. स्वामी विवेकानंद के सामने भी कई चुनौतियाँ आई लेकिन उन्होंने अकेले ही अपना पथ चुना और बाद में परचम लहराया.

यह हमारा सौभाग्य है कि जिस सपने को एक नरेंद्र ने 19वीं सदी में गढ़ा था आज 21वीं सदी में उन्ही सपनों को पूरा करने के लिए एक नरेंद्र कार्यरत है.

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