प्रस्तावना
महाराष्ट्र
चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपने संकल्प पत्र में वीर सावरकर जी को भारत रत्न
मिलने की सिफारिश करने का वायदा किया और इसी के साथ देश की राजनीति में वीर सावरकर
फिर से चर्चा का विषय बन गये। वीर सावरकर के बारे में आज भी देश की राजनीति में टकराव की स्थिति है। एक
तरफ भारतीय जनता पार्टी व् अन्य राष्ट्रवादी दल जो वीर सावरकर को महान क्रन्तिकारी
मानते हैं वहीं कांग्रेस, मुस्लिम व वामपंथी पार्टियाँ सावरकर को कोसती हैं। इस देश
की जनता तक कभी भी सावरकर के बारे में ज्यादा जानकारी नही पहुँचने दी गयी जिससे
समाज को यह ही नही पता कि आखिर सावरकर ने क्या किया था जिस कारण उन्हें भारत रत्न
देने की मांग भाजपा ने की। सन 1999 में जब अटल विहारी बाजपेयी पुरे पांच साल के
लिए प्रधानमन्त्री बने थे तो उन्होंने भी सावरकर को भारत रत्न देने की सिफारिश
राष्ट्रपति को की थी लेकिन तब राष्ट्रपति ने इस सिफारिश को स्वीकार नही किया था।
वीर सावरकर के विषय में विवाद खड़ा करके समाज में उनके खिलाफ दुष्प्रचार भी बहुत
हुआ और सच्चाई नीचे दब गयी। वीर सावरकर को कांग्रेस ने अपने दुश्मन के रूप में
लिया इसी कारण कई दशक तक सरकार में रहते हुए कांग्रेस ने यही किया कि कैसे भी वीर
सावरकर को मिटा दिया जाये। कांग्रेस और वामपंथी सहित सभी
सेकुलरिस्ट पार्टियां विनायक दामोदर सावरकर का मूल्यांकन काफी संकुचित दायरे में
करती है। वामपंथ की दिक्कत ये है कि वो
हिंदुस्तान में एक भी ऐसा चिंतक पैदा नहीं कर सका जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान
क्रांतिकारियों का प्रेरणाश्रोत बन सके। आजादी के बाद वामपंथी इतिहासकार जिन
क्रांतिकारियों को वामपंथी घोषित करने की कोशिश में लगे उन सभी ने सावरकर से न
सिर्फ प्रेरणा ली बल्कि वो सीधे संपर्क में थे। वो अखंड भारत चाहते थे। इस बात को बाबा भीमराव
अंबेडकर भी लिख चुके हैं। लेकिन विडंबना ये है कुछ वामपंथी इतिहासकारों के झांसे
में आकर कुछ थके हुए लेखक बड़ी बेशर्मी से ये लिख देते हैं कि सावरकर ने टू-नेशन
थ्योरी थी।
आज आज़ादी के सत्तर वर्ष बाद भी समाज में वीर सावरकर के बारे में जानकारी
का आभाव है, इससे साफ समझा जा सकता है कि कांग्रेस ने किस
स्तर तक देश के स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ षड्यंत्र किया। असल में, जब कांग्रेस अंग्रेजों
का सेफ्टी वल्व बनकर ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा की शपथ लिया करती थी, जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम में
गांधी और नेहरू का नामोनिशान नहीं था, जब कम्यूनिस्ट पार्टी, हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कहीं पैदा नहीं हई थी, तब सावरकर भारत के सैकड़ो क्रांतिकारियों के
मित्र, गाईड और फिलोसोफर थे।
आज देश को जरूरत है कि वीर सावरकर के बारे में समाज जाने। उनके
महान कार्यों से युवा पीढ़ी परिचित हो, और उनके विचार देश के कोने कोने तक जाएँ।
वीर सावरकर पर बहस कुछ दिन पहले तब भी हुई जब दिल्ली विश्वविद्यालय
में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् द्वारा वीर सावरकर की मूर्ति की स्थापना कर दी।
इसके बाद कांग्रेस के ही छात्र संगठन एनएसयुआई ने न सिर्फ सावरकर की मूर्ति का
अपमान किया बल्कि उनके बारे में अपमानजनक शब्द भी इस्तेमाल किए। यहाँ फिर से यह
देखने को मिला कि कांग्रेस किस तरह और किस हद तक सावरकर का विरोध करती है। स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति पूरे राष्ट्र को
श्रद्धा और कृतज्ञता प्रगट करना चाहिए चाहे वो किसी भी विचारधारा से हों। लेकिन, कांग्रेसियों
और वामपंथियों की वजह से भारतीय राजनीति पतन के ऐसे बिन्दु पर पहुंच गयी है कि ये
स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धांजली देने में भी राजनीति करते हैं। कांग्रेस, मुस्लिम और वामपंथी पार्टियों के सावरकर को बदनाम
करने के एजेंडे का शिकार न बनकर, हमे सावरकर को जानना चाहिए
और स्वयं निर्णय लेना चाहिए की वीर सावरकर आज के समय में किसके हकदार।। दुष्प्रचार
और अपमान के या सम्मान और भारत रत्न के।
सावरकर परिचय
दिनांक 28 मई 1883 में नासिक
में जन्मे विनायक दामोदर सावरकर का भारत के स्वतंत्रता में अहम् योगदान है। प्रखर
बुद्धि वाले सावरकर बचपन से ही देशभक्ति से ओतप्रोत थे। स्कूली दिनों में ही उनके
अंदर एक कवि जन्म ले चुका था। सन 1901 में यमुनाबाई के साथ वो वैवाहिक सम्बन्ध में
बंधने के बाद सन 1902 में
मैट्रिक की पढाई पूरी की। इसके बाद 1902 में पुणे
के फर्ग्युसन कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज के समय उनके ओजोस्वी और राष्ट्रवादी
भाषण होना आम बात थी। इसी समय देश की आज़ादी के लिए अनेकों स्वतंत्रता सेनानी तैयार
करने के लिए उन्होंने ‘अभिनव भारत’ नाम
के संगठन की स्थापना की। कॉलेज के दिनों में कानून, इतिहास
और दर्शन शास्त्र की किताबों का अध्यन किया और लोकमान्य तिलक के सम्पर्क में आकर
भारत की स्वतंत्रता के विषय में चर्चा भी करते थे। सन 1905 में बंगाल विभाजन के
बाद अंग्रेजी सरकार का जमकर विरोध किया और अंग्रेजीयत के विरोध के रूप में विदेशी
कपड़ों की होली जलाई। वीर सावरकर के विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के कई वर्ष बाद 1921 में यही
काम महात्मा गाँधी ने किया। राष्ट्रवादी गतिविधियों, अंग्रेजी
सरकार के विरुद्ध लगातार आवाज उठाने के कारण उन्हें कॉलेज से डिसमिस कर दिया गया।
कॉलेज छात्रों के भारी दबाब और बाल गंगाधर तिलक के अनुरोध पर उन्हें पेपर देने की
अनुमति दे दी गयी। पेपर में अच्छे प्रदर्शन पर स्कॉलरशिप मिली और बार-एट-ला की
पढाई के लिए लन्दन चले गये।
सावरकर लंदन में
उस समय लन्दन में
इंडिया हाउस क्रन्तिकारी गतिविधियों का गढ़ था. भारत की स्वतंत्रता के लिए कई
देशभक्त वंही से अपनी गतिविधियाँ संचालित करते थे. सावरकर भी लन्दन में वंही रहने
लगे. तब इंडिया हाउस को श्याम जी कृष्ण वर्मा संचालित करते थे. लन्दन प्रवास के दौरान ही इंडिया हाउस में 1907
में 1857 में हुए स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनायी. इस
समय भारत में 1857 की इस क्रांति को क्रांति व् प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
के तौर पर नही माना जाता था. अंग्रेजी सरकार ने एक उपद्रव् के तौर पर इसको माना था
और भारतीय समाज में भी इससे जुड़ी कहानिया, लेख, किताबे, व् जानकारी बहुत कम थी या
बिलकुल नही के बराबर थी, जिस कारण 1857 की क्रांति के विषय में बहुत कुछ उस समय
भारत की जनता को नही पता था. सन 1907 में 1857 की घटना को पचास वर्ष पुरे होने
पर अंग्रेजी मीडिया ने अपनी सरकार का महिमामंडन करना शुरू किया. उन्होंने लक्ष्मी
बाई, तांत्या टोपे, कुंवर सिंह आदि वीरो को उपद्रवी बताकर छापा. इसके उत्तर में
इंडिया हाउस में रह रहे देशभक्तों ने स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई
बल्कि कई लेख भी लिखे. इसी को लेकर वीर सावरकर ने तकरीबन हजार पेज की एक पुस्तक “Indian war of Independence-1857” लिखी. अंग्रेजी सरकार ने इस किताब को छपने
से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया. सावरकर ने इस किताब के जरिए 1857 की क्रांति को
लिखित रूप दिया, समाज में इस पूरी क्रांति के बारे में सारी जानकारी दी और इसको
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर प्रस्तुत किया. सावरकर ने लिखा कैसे 1857 में
भारतियों ने मिलकर अंग्रेजी कम्पनी राज की नीवं हिला दी थी. इस प्रकार के पुस्तक
से भारतीय समाज में एक नई चेतना का प्रसार हो सकता था और भारतीय फिर से इसी तरह की
क्रांति के लिए खड़े हो सकते थे इसीलिए अंग्रेजी सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया.
लन्दन (ब्रिटेन), पेरिस (फ्रांस), बर्लिन (जर्मनी) में काफी कोशिश के बाद भी
सावरकर की बुक छप नही सकी. बाद में होलैंड में गुप्त रूप से छपकर इसकी प्रतियाँ
पेरिस आई और वीर सावरकर की इस किताब के जरिए प्रथम स्वत्रन्त्रता संग्राम 1857 के
बारे में पुरे दुनिया ने जाना और कई क्रांतिकारियों को जन्म दिया. वीर सावरकर ने
1857 क्रांति की योजना तैयार होने, अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध लड़ने और क्रांति के
असफल होने के पीछे मौजूद कारणों का गहन अध्यन व् विश्लेष्ण किया. उस समय सावरकर की
यह पुस्तक क्रांतिकारियों की गीता के तौर पर मशहूर हुई. इसकी पहली प्रति छपने के
बाद दूसरी प्रति भिकाजी कामा और तीसरी प्रति स्वयं भगत सिंह ने छपवाई. वामपंथियों
ने खूब कोशिश की कि भगत सिंह वामपंथ से प्रभावित थे असल में उनके अंदर सावरकर के
विचारों की कोई कमी नही थी. उस समय हर क्रन्तिकारी के पास सावरकर की यह किताब होना
आम हो गया.
वीर सावरकर ने
बेरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की लेकिन डिग्री लेने के लिए ब्रिटेन की महारानी
विक्टोरिया के प्रति वफादार रहने की शपथ लेनी होती थी. उन्होंने अपने देश भारत व्
स्वयं के उपर ब्रिटिश अधिपत्य को कभी स्वीकार नही किया और इसीलिए वीर सावरकर ने
शपथ लेने से मना कर दिया और डिग्री नही ली.
इंडिया हाउस के
दौरान “Free India Society” की नीवं रखी जिससे वंहा पढ़ रहे भारतीय छात्रों
को देश की स्वतंत्रता के लिए जारी लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जा
सके. सावरकर ने ब्रिटिश सरकार के विरोध में
पूरे युरोप में भारतीय युवाओं को संगठित कर क्रांति की लपटों को ब्रिटिश शासकों के
दरवाजे तक पहुंचा दिया
जब सावरकर लन्दन
में क्रन्तिकारी गतिविधियों का आधार बन रहे थे तब भारत में कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई
को अपने ही अंदाज में लड़ रही थी. जैसा की हम जानते हैं कि देश के क्रन्तिकारी
जिन्होंने सशस्त्र क्रांति के बल पर आज़ादी लेने के विचार का समर्थन व् अनुपालन
किया वो गर्म दल के लोग कहलाये. जो लोग राजनीती करके, सिर्फ लेख लिखकर और बातचीत
के द्वारा आज़ादी प्राप्त करना चाहते थे वो नरम दल के नेता कहलाये. अक्सर नरम दल
जोकि मुख्यतः कांग्रेस ही थी, उसकी नीति ढुलमुल रवैये वाली थी. करीब दो सौ साल से
हत्याओं, असहनीय अत्याचारों, नर संहार व् कूटनीति के बल पर जो अंग्रेज भारत में
सत्ता पर बैठे थे वो बातचीत से देश को छोडकर चले जायेंगे ऐसा कदापि सम्भव नही था.
इसीलिए सावरकर लगातार क्रांति की ज्वाला जलाये हुए थे. ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़
फेकने के लिए ब्रिटेन में ही रहकर उनके द्वारा किए गये कार्य अद्भुत थे.
इसके साथ ही वीर सावरकर द्वारा लिखे जा रहे लेख,
स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी किताब और उनके विचारों के द्वारा प्रेरित होकर अनेकों
युवा भारतीय आज़ादी के महासमर में कूद पड़े. ब्रिटेन से भारत की आज़ादी के लिए
ब्रिटेन में ब्रिटिश सरकार की ही नाक के नीचे रहकर स्वतंत्रता के लिए जारी अनेकों
गतिविधियों के कारण सावरकर भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई के नायक बन गये. उनके विचारों
से प्रेरित लोगों ने लन्दन के साथ साथ भारत में भी क्रन्तिकारी गतिविधियाँ तेज़ कर
दी.
तारीख 01 जुलाई 1909 को क्रन्तिकारी मदनलाल ढींगरा ने विलियम हट
कर्जन की हत्या कर दी. क्रन्तिकारी मदनलाल ढींगरा इंडिया हाउस में सावरकर के
सहपाठी व् एक तरह से शिष्य थे. इन घटना के बाद अंग्रेजी सरकार के नजरों में सावरकर
चढ़ गये. इधर, इनके बड़े भाई को जून 1909 में ही क्रन्तिकारी विचारों से भरी उत्तेजक
कविताएँ लिखने और छापने के आरोप में बंदी बना लिया गया था और काले पानी की सजा के
लिए अंडमान भेज दिया गया. भारत में चुन चुन कर सावरकर के समर्थक और
सगे-सम्बन्धियों पर अत्याचार किए जा रहे थे. सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गयी. लन्दन
में क्रन्तिकारी गतिविधियों का गढ़ रहा इंडिया हाउस बंद कर दिया गया. मदन लाल ढींगरा
को फांसी दे दी गयी. लन्दन में
क्रांतिकारी गतिविधियों, भारत के कई शहरों में क्रन्तिकारी गतिविधियों और
क्रांतिकारियों के सावरकर से प्रेरित पाए जाने पर 13
मई 1910
इनको गिरफ्तार कर लिया गया.
फ़्रांस की घटना
मैडम भिकाजी कामा
और व् अन्य क्रांतिकारियों ने सावरकर को मुक्त कराने के लिए योजनायें बनाई पर सफल
न हो सकी. भारतीय क्रन्तिकारी चाहते थे की सावरकर पर जो भी मुकदमा हो ब्रिटेन में
ही चले क्योकि भारत में चला मुकदमा सिर्फ खानापूर्ति होगी. वंहा पैरवी करना भी मुश्किल
होगा. लेकिन सावरकर का मुकदमा भारत ट्रान्सफर कर दिया गया. तारीख 7 जुलाई
1910 को भारत ले जाते समय अन्य क्रांतिकारियों के साथ वंहा
से मुक्त होने का गुप्त प्लान बनाया. महाराज शिवाजी के औरंगजेब के कैद से भागने से
प्रेरणा लेकर बना यह प्लान फ्रांस में राजनितिक शरण लेने का था.
एस एस मौर्य नाम के
जहाज से सावरकर को भारत ले जाया जा रहा था. अंग्रेजी सरकार द्वारा इस बात का पूरा
ध्यान रखा गया की जहाज कम से कम ही बीच में रुके. ब्रिटेन से चलकर जहाज फ्रांस के
मार्सलीज पहुंचा. तट से दूर सावरकर पानी के जहाज से फ्रांस पहुंचते ही कूद गये और
गोलियों की बौछारों के बीच तैरते हुए फ्रांस पहुँच गये. वंहा राजनितिक शरण लेने की
कोशिश की लेकिन वंहा की पुलिस ने दबाब में उनको फिर ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया.
यह घटना पूरी दुनिया में फ़ैल गयी और अंतर्राष्ट्रीय अखबारों में काफी छपी. वैसे तो
नेपोलियन, सुभाष चन्द्र बोस और अन्य क्रांतिकारियों के ऐसे भागने के प्रसंग इतिहास
में हैं लेकिन सावरकर का प्रसंग दुनिया में छाया. इस घटना पर भारतीय
क्रांतिकारियों ने फ्रांस में एक राजनितिक शरणार्थी को ब्रिटेन को सोंपे जाने का
मामला उठाया. भिकाजी कामा और लाला हरदयाल ने फ़्रांसिसी समाजवादी नेता जो जारविस की
सहायता से फ्रास में आन्दोलन किया ताकि सावरकर मुक्त हो सके. मार्सलीज के मेयर ने
भी मामले की जाँच शुरू की. काल मार्क्स के पौत्र तब फ्रांस में समाजवादी पत्र “लघु
मानती” चलाते थे. उन्होंने इस विषय पर बड़े शीर्षक के साथ छापा. कई फ्रांसीसी
पत्रों में फ्रांस अधिकारीयों ने रोष प्रकट किया. काफी दबाब के बाद हेग स्थित
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने मुकदमा अपने हाथ ले लिया. फ्रासं की सरकार ने मुकदमा
मजबूती से नही लड़ा और ब्रिटिश सरकार अपने मंसूबे में कामयाब हो गयी. इस पर बाद में
फ्रांस सरकार पर इतना दबाब पड़ा की प्रधानमन्त्री ब्रियांदा ने इस्तीफा दे
दिया.
इन सब घटना से यह
अंदाजा लगाया जा सकता है की सावरकर का कद कितना बड़ा था. उस समय इस बारे में उनके
लेख व् घटनाओं की रिपोर्टिंग ब्रिटिश साम्राज्य के साथ अन्य देशों के अख़बारों में
छपते थे. भारतीय क्रांति के नायक की भांति उनके लिए फ्रांस की राजनीती में भूचाल आ
गया. भारत से सुदूर सावरकर के लिए यह सब कुछ उनको भारतीय स्वतंत्रता के लिए किये
जा रहे प्रयासों का महानायक बनाती है.
सावरकर से अंग्रेजी
सरकार बुरी तरह खौफ खाती थी. इसका एक मुख्य कारण वो अपने विचारों से कई
क्रांतिकारियों को तैयार कर देते थे. इनपर कई आरोप के साथ 24
दिसम्बर 1910 को आजीवन कारावास की सजा दी गयी. इसके बाद अन्य मामले
में 31 जनवरी 1911 को फिर से आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी.
इसी के साथ वीर सावरकर विश्व के पहले ऐसे नेता बन गये जिन्हें विश्व इतिहास में
पहले बार दो दो जन्मो के लिए कारावास की सजा मिली हो. इस पर वीर सावरकर ने हंसकर
कहा था – “मुझे प्रसन्नता है कि मुझे दो जन्म की सजा देकर ब्रिटिश सरकार ने
हिन्दुओं के पुनर्जन्म के सिद्धांत को मान ही लिया”
सजा के दौरान जेल
में रहते हुए सावरकर को पता चला की उनके बड़े भाई की तरह छोटे भाई को भी कालेपानी
की सजा के लिए अंडमान भेजा गया है.
काला पानी की सजा
नासिक के कलेक्टर
जैक्सन की हत्या के षड्यंत्र में 07
अप्रैल 1911
को सावरकर को काले पानी की सजा हुई.
अंडमान स्थित सेलुलर जेल
की सजा तब के समय में भारत में अंग्रेजो द्वारा जी जाने वाली सबसे भयानक, असहनीय
और अमानवीय सजा थी. इसके बारे में पढकर ही रूह काँप जाती है. समुन्द्र से घिरे इस
द्वीप पर बनी इस जेल में हर कैदी को अकेले छोटी सी कोठरी में रखा जाता था. इन
कोठरियों में सूर्य की रौशनी भी नही पहुँच पाती थी. वंहा ब्रिटिश सरकार ने कितनी
हत्याएं की, उनका कोई रिकॉर्ड नही है. सभी क्रन्तिकारी वंहा पर लोहे की बेड़ियों
में जकड़े हुए रहते थे. इससे उनका चलना बैठना सब कुछ असहनीय था. अकेले पन के शिकार
क्रांतिकारियों द्वारा आत्महत्या का प्रयास आम बात थी. वंहा जो उन क्रांतिकारियों
से काम लिया जाता था वो अत्यंत दुखदाई और अमानवीय था.
इन सबके बीच वीर सावरकर ने
वंहा सजा काटी. तारीख 04 जुलाई 1911 को सावरकर को अंडमान ले जाया गया. वंहा ए, बी, सी, डी वार्ड थे जिसमे सावरकर
डी वार्ड में थे. यानी सबसे बुरी यातनाएं दिए जाने वाले कैदियों की लिस्ट में. अंडमान
की जेल का जेलर एक आयरिश था, जिसका नाम बारी था. पहली बार सामना होते ही बारी बोला
– “यदि तुम मार्सेल्स की तरह भागने का
प्रयास करोगे तो भयंकर संकट में पड़ जाओगे. जेल के चरों ओर घने वन हैं और उनमे
भयानक वनवासी रहते हैं. वो तुम जैसे युवकों को ककड़ी की तरह खा जायेंगे” यह सुनकर
सावरकर बोले – “गिरफ्तार होते ही मैंने अपने भावी निवास स्थान अंडमान की जानकारी
के लिए यंहा के इतिहास का अध्यन कर लिया है. अतः आपको इस विषय में अधिक बताने की
जरूरत नही”
सावरकर ने इस सजा
को मिलने पर यह सोच लिया था कि वो अब जिन्दा भारत कभी नही लौटेंगे. यंहा गौर करने
वाली बात यह भी है की सेलुलर जेल में उनके भाई भी बंद थे पर दोनों को एक दुसरे के
बारे में पता ही नही चला. जेल के दस्तावेज के अनुसार सावरकर जेल के सबसे खतरनाक
कैदी थे. उनकी रिपोर्ट सीधे
ब्रिटेन भेजी जाती थी. उन्हें महीनों काल कोठरी
में रखा गया. एक ऐसी कोठरी जहां से फांसी का तख्त साफ दिखाई देता था. मकसद सिर्फ
उनका मनोबल तोड़ना था. उन्हें राजनीतिक बंदी बतौर कोई सुविधा नहीं दी गई. यहां तक
कि सावरकर से काल कोठरी में कोल्हू के बैल की तरह काम लिया गया. उन्हें पैरों और
गले में बेड़ियां पहना कर लगातार कई-कई महीने रखा गया. इसी अवस्था में उन्हें अपने
दैनिक नित्य कर्म करने होते थे.
दया याचिका पर
अंडमान की सजा 50 साल की थी. जब वो सजा पूरी करके छूटते तो 78 वर्ष
के हो जाते. जेल के दूसरे साथियों से दूर इस कदर अमानवीय सजा 78 साल की उम्र तक भुगतते-भुगतते वह स्वतंत्रता आंदोलन
में अपना योगदान कितना दे पाते, इसे सिर्फ समझा ही जा सकता
है. सावरकर को यह समझ आ
गया था कि अगर वो सजा पूरी करेंगे तो एक बड़ा कालखंड बीत जायेगा. ऐसे में भारतीय
स्वतंत्रता के लिए बोये उनके विचार जिनको अभी और फैलना था, वो दब जायेंगे. देश की
आज़ादी के लिए सावरकर का जेल से बाहर होना बाहुत जरूरी था. इसलिए उन्होंने जेल से बाहर
निकलने की योजना पर कार्य किया.
कुशाग्र बुद्धि के सावरकर दूरदर्शी भी थे.
उन्होंने अंग्रेजो की कैद से निकलने के प्लान पर काम करना शुरू किया. इधर देश में
महात्मा गाँधी, बल्लभ भाई पटेल, बाल गंगाधर तिलक आदि स्वतंत्रता सेनानी भी सावरकर
के जेल में होने से चिंतित थे. सावरकर के जेल से अंदर होने से आज़ादी की लड़ाई पर
पड़ने वाले असर से वाकिफ थे.
तारीख 08
मई 1921
को “यंग इंडिया” में महात्मा गाँधी ने लिखा –
“अगर भारत इसी तरह सोया रहा तो मुझे
डर है कि उसके दो निष्ठावान पुत्र (सावरकर और उनके भाई) सदा के लिए हाथ से चले
जायंगे. एक सावरकर भाई (विनायक दामोदर सावरकर) को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ.
मुझे लन्दन में उनसे भेंट करने का सौभाग्य मिला है. वे बहादुर हैं. चतुर हैं.
देशभक्त हैं. वे क्रन्तिकारी हैं और इसे छिपाते नही हैं. मौजूदा शासन प्रणाली का
सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले देख लिया था. आज भारत को,
अपने देश को दिलोजान से प्यार करने के अपराध में वे कालापानी भोग रहे हैं”
बाल
गंगाधर तिलक और बल्लभ भाई पटेल अंग्रेजो से विद्रोह न करने और ब्रिटिश कानून न
तोड़ने के शर्त पर सावरकर की रिहाई की मांग कर रहे थे. सावरकर के छोटे भाई नारायण
ने महात्मा गाँधी से कहा कि आप स्वयं उनकी पैरवी करें. गाँधी जी ने कहा की आप
सावरकर से कहो की वो एक याचिका ब्रिटिश सरकार को भेजे और मैं उसकी सिफारिश करूंगा.
गाँधी ने लिखा की सावरकर मेरे साथ ही शान्ति के राह पर चलकर काम करेंगे तो आप इनको
रिहा कर दीजिए. इधर सावरकर वकील थे और कुटिल भी. वो अंग्रेजी कानून को ही ढाल
बनाकर वंहा से निकलना चाहते थे. वो भलीभांति जानते थे की याचिका कैसे लिखी जाती है
ताकि उन्हें वंहा से छुटकारा मिल जाये और भारत की आजादी की लड़ाई में अपना ज्यादा
से ज्यादा योगदान दे सके. मैं समझता हूँ कि सावरकर अगर सेलुलर के आलावा भारत की
किसी और जेल में होते तो शायद बाहर निकलने में कम उर्जा लगाते. राजनितिक बंदियों
को जो सुविधा देश की जेलों में मिलती थी वो सेलुलर में नही थी. अमानवीय अत्याचार,
जुल्म आदि तो वंहा था ही इसके साथ ही पत्र भेजने के लिए भी वंहा मौका नही था. कोई
भी बंदी साल में सिर्फ एक ही पत्र लिख सकता था. अगर क्रन्तिकारी हड़ताल करने की
कोशिश करते तो वो एक पत्र लिखने का भी मौका नही दिया जाता. ऐसे में सावरकर की आवाज
देश के और हिस्सों में पहुंचना असंभव थी.
अक्सर
सावरकर के बारे में दुष्प्रचार करने वाले इसी कड़ी को झूठे तर्कों के साथ रखते हैं.
वो कई बार सावरकर के जेल से याचिका लिखने और भूख हड़ताल न करने को उनकी अंग्रेजो से
वफादारी से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं. यह भी अजीब है की असहनीय अत्याचारों को सहने
वाले सावरकर पर ऊँगली उठाने वाले कभी यह नही पूछते की क्या वजह थी कि कभी नेहरु या
गाँधी को इतनी अमानवीय सजा क्यों नही मिली. उन्हें तो बाकायदा बेड, टेबल, कागज,
कलम, व् अन्य सुविधाएँ मिलती थी. क्या वजह थी की अंग्रेजी सरकार उनपर इतनी महरबान
थी. सावरकर
ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, ‘अगर मैंने जेल में हड़ताल
की होती तो मुझसे भारत पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता’. कुछ लोग तर्क देते
हैं कि भगत सिंह के पास भी माफ़ी मांगने का विकल्प था, लेकिन
उन्होंने ऐसा नहीं किया. तब सावरकर के पास ऐसा करने की क्या मजबूरी थी? इसे ऐसा समझा जा सकता है कि भगत सिंह और सावरकर में बहुत मौलिक अंतर है.
भगत सिंह ने जब बम फेंका तो वह वहां से भागे नहीं. उसी दिन उन्होंने तय कर लिया था
कि उन्हें फांसी का फंदा चाहिए. दूसरी तरफ़ वीर सावरकर एक चतुर क्रांतिकारी थे.
उनकी कोशिश थी कि भूमिगत रह कर देश की आजादी के लिए काम किया जाए. सावरकर इस पचड़े
में नहीं पड़े कि उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे. उनकी सोच ये थी कि अगर वह
जेल के बाहर रहेंगे तो वह जो करना चाहेंगे, वह कर सकेंगे.
यहां यह याद दिलाना भी उचित होगा कि एसएस मौर्य जहाज से भी भागने की कोशिश सावरकर
कर चुके थे इसके बारे में हम पहले ही पढ़ चुके हैं.
प्रथम
विश्व युद्ध की स्थिति का लाभ उठाकर जेल से बाहर आने के लिए ब्रिटिश सरकार के नाम
जिस पत्र को छोटे दिमागों के मूर्ख लोग माफीनामा बता रहे हैं, उन्हें उस पत्र पर ब्रिटिश
सरकार की गोपनीय टिप्पणियों को पढ़ना चाहिए और अपने से ही सवाल पूछना चाहिए कि
सावरकर की ओर से ऐसे कई पत्र आने के बाद भी ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रिहा क्यों
नहीं किया?
भारत में
क्रांतिकारियों, नेताओं द्वारा भारी दबाब था. महात्मा गाँधी का असहयोग आन्दोलन चल
रहा था, ऐसे में अंग्रेजी सरकार उनकी हर बात को हल्के में लेने की गलती कैसे करती.
उनके कहने व् अन्य तरीके से भारी दबाब पड़ने पर उन्हें रत्नागिरी जेल शिफ्ट कर दिया
गया.
कथित
याचिका के बल पर जेल से रिहा होने के बाद सावरकर को रत्नागिरी में ही रहने को कहा
गया था. अंग्रेज उन पर नजर रखते थे. उनकी सारी डिग्रियां और संपत्ति जब्त कर ली गई
थी. सावरकर ने अपनी आत्मकथा 'माय ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ'
में पेज नंबर 301 पर इस बारे में साफ-साफ लिखा
है. वह लिखते हैं, 'अंडमान में रहते हुए भले ही मैं कितने ही
अच्छे काम कर लेता. भले ही मैं वहां के लोगों में जागरूकता फैला पाता, लेकिन स्वतंत्र व्यक्ति बतौर वह सब अपने देश के लिए नहीं कर पाता, जो जेल से बाहर रहते हुए सक्षम था'. वह आगे लिखते
हैं, 'दूसरी तरफ अपनी आजादी को हासिल करने के लिए मैं कोई भी
अनैतिक काम करने को तैयार नहीं हूं. ऐसा काम नहीं करूंगा, जिससे
मुझे आत्मग्लानि हो या मेरे देश की आन-बान-शान पर कोई बट्टा लगे. इस तरह से हासिल
की गई आजादी वास्तव में अनैतिक होगी और स्वतंत्रता के आंदोलन पर एक बदनुमा दाग.'
(पेज नंबर 245)
अब संकुचित मानसिकता वाले वामपंथी इतिहासकार और लेफ्ट लिबरल
गैंग ये साबित करना चाहती है कि सावरकर डरपोक थे. गद्दार थे. उन्होंने अंग्रेजो के
सामने घुटने टेक दिए. इनसे पूछना चाहिए कि स्वतंत्रता संग्राम में जितने भी नेता
जेल गए क्या उन्होंने पूरी सजा काटी थी? इसका जवाब है नहीं. तो फिर सवाल यह उठता हिया कि ये कैसे सजा पूरा करने से
पहले जेल से बाहर आ जाते थे? कानूनी प्रावधान का इस्तेमाल
करके. तो फिर क्या इसे कायरता या गद्दारी बताया जा सकता है. वैचारिक दरिद्रता का
इससे बड़ा उदाहरण कोई दूसरा नहीं हो सकता है.
अब
कांग्रेस के दूसरे दुष्प्रचार पर आते हैं कि अंग्रेजों की पिट्ठुगिरी के एवज में
उन्हें पेंशन मिलती रही, तो ब्रिटिश कानून के तहत सशर्त रिहाई प्राप्त सभी
राज बंदियों को पेंशन दी जाती थी. उस समय अंग्रेजों का यह नियम था कि हम आपको काम
करने की छूट नहीं देंगे, आपकी देखभाल हम करेंगे. ऐसे में
सावरकर को अंग्रेज सरकार 60 रुपए देती थी, जो जेल से रिहा हुए सभी राजनीतिक कैदियों को दी जाती थी.
जेल के बाद की स्थितियां
ऐसा नहीं है कि सावरकर ने
माफी मांग ली और घर आकर बैठ गए या अंग्रेजों के गुणगान में किताबें लिखने लगे.
जैसा कि बहुत लोगों ने किया
सन
1921 में स्वदेश वापसी हुई लेकिन रत्नागिरी जेल में भी
3 वर्ष की सजा भोगी. बाद में रत्नागिरी शहर से बाहर जाने और किसी भी प्रकार की
राजनैतिक गतिविधि में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. अंततः 10 मई 1937 को
स्त्नागिरी से मुक्त हुए. स्वदेश वापसी के बाद सावरकर की जिन्दगी अजीबोगरीब ढंग से
बदल गयी. जेल से सशर्त रिहाई के बाद भी उनपर कड़ी निगरानी रखी जाती थी. इससे उनके
स्वयं किसी भी तरह संग्राम में भूमिका निभाना मुश्किल होता जा रहा था. गुप्तचरों
का जाल उनके इर्दगिर्द रहता था. कहते हैं की एक बंदूक जितना नुकसान कर सकती है,
उससे कई गुना ज्यादा नुकसान एक विचार कर सकते हैं. विचारों की प्रवाह पर न कोई
सत्ता रोक लगा सकती है और न ही नजरबंद करके रोक सकती है. विचारों के प्रवाह को
रोकना असंभव है. सावरकर ने यही राह अपनाई. इतिहास में जाएँ तो चाणक्य इतने कुटिल
थे की एक साधारण से लडके को शिक्षा-दीक्षा देखर इतना समर्थ बलशाली बना दिया और
अपनी कूटनीति और बुद्धि से उसको आगे बढ़ाया की वो आगे जाकर चन्द्रगुप्त मौर्य बन
मगध का राजा बना. क्या चाणक्य खुद इतना समर्थ नही थे की वो मगध का राजा बन सके.
क्या अपने अपमान का बदला वो स्वयं नही ले सकते थे. इतना कुटिल और बुद्धिमान चाणक्य
को क्या जरूरत पड़ी चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वारा नन्द वंश के खात्मे की. जबकि यह भी
नही भूलना चाहिए की चन्द्रगुप्त चाणक्य से मिलने से पहले पशु चराता फिरता था. इन
सभी प्रसंगो पर स्वयं विचार कीजिए और उसके आधार पर सावरकर के सेलुलर जेल के बाद
आये परिवर्तन पर गौर कीजिए.
हिन्दू महासभा की
स्थापना
सावरकर
जब जेल से बाहर आये तो वातावरण बदल चुका था. महात्मा गाँधी और सावरकर के विचारों
में जमीन आसमान का फर्क आ चूका था. महात्मा गाँधी समेत कांग्रेस उस राह पर जा चुकी
थी जो न सिर्फ उसके बल्कि राष्ट्र के पतन का कारण बन जाता. सावरकर जब फिर सामाजिक
जिन्दगी में वापस आए तो बड़ा कालखंड गुजर चूका था. यह सन थी 1937 जब सावरकर जेल से बाहर आये. सोचिए सन 1910 में जो
हालात देश के और देश के बाहर चल रहे क्रन्तिकारी आंदोलनों की थी वो 1937 आते आते
कितनी बदल गयी होगी.
सावरकर
के जेल के बाहर सार्वजनिक जीवन में आने तक देश में एक गंभीर समस्या जन्म ले चुकी
थी. वो थी जिन्ना और उसकी मुस्लिम लीग का उभार. कांग्रेस मुस्लिम लीग के सामने झुक
जाती थी. मुस्लिम एकता और इस्लामिक एजेंडे के साथ मुस्लिम लीग देश की स्वतंत्रता
कम और देश के खंडन के लिए ज्यादा काम कर रही थी. आज़ादी के बाद मुस्लिमो के लिए अलग
देश हो, यह मुस्लिम लीग का प्रमुख एजेंडा था. कांग्रेस का मुस्लिम लीग के सामने
झुक जाना और उसकी शर्तों को हर बार मान लेना सावरकर की नजरों में भारत के सामने
आने वाला गंभीर खतरा था. मुस्लिम लीग सावरकर के अनुपस्थिति में इस्लाम का
राजनीतिकरण कर चुकी थी. इस्लामिक एकता और दंगों के नाम पर ब्लेकमेल करके मुस्लिम
लीग राजनीती में हाथ अजमा रही थी. कांग्रेस और गाँधी दंगों के नाम पर ब्लेकमेल होने
पर उसकी शर्तों को मान लेते थे. जब भी कोई शर्त अस्वीकार की जाती तो देश के
मुस्लिम बहुल इलाकों में हिन्दुओं पर हमले शुरू हो जाते. देश में दंगो का वातावरण
बन जाता और कांग्रेस झुक जाती.
सावरकर
इस स्थिति पर गंभीर थे. उनका मानना था कि जब मुस्लिम लीग का लक्ष्य देश की आज़ादी
कम अपना अलग देश ज्यादा है तो उसको साथ लेने की मजबूरी कांग्रेस क्यों प्रकट करती
है. मुट्ठी भर मुस्लिम के बिना जब आज़ादी सम्भव है. सावरकर ने हिंदुत्व का राजनीतिक
वर्जन गढ़ा. हिंदुत्व पर उन्होंने जो किताबें लिखी वो सिर्फ जिन्ना और मुस्लिम लीग
के समय पर आधारित नही थी बल्कि ब्रिटिश शासन से पहले 800 वर्ष की इस्लामिक गुलामी
के विश्लेष्ण पर भी आधारित थी. सावरकर का मानना था कि हिन्दू एकता और हिन्दू सेना
को तैयार करके ही बिना देश का विभाजन के आज़ादी पाई जा सकती है इसी सोच के साथ आगे
हिन्दू महासभा का गठन हुआ. सिर्फ देश का विभाजन न हो इसलिए सावरकर को हिंदुत्व की
विचारधारा बनाकर उसे राजनीती में लाना पड़ा. यंहा उनके हिंदुत्व का, हिन्दू शब्द का
क्या मतलब है आदि सब हम बाद में चर्चा करेंगे. बिना हिंदुत्व पर चर्चा करे हम
सावरकर के आशय और हिन्दू महासभा के उद्देश्य को नही जान सकते.
हिन्दू महासभा बनाने से पहले ही जिन्ना और उसकी मुस्लिम लीग
जन्म ले चुकी थी. ये वो सब परिस्थियाँ थी जिसपर सावरकर को सोचने पर मजबूर कर दिया.
हमने आज़ादी की लड़ाई को लड़ने के लिए कारवां तैयार तो कर दिया लेकिन उसी कारवां में
जिन्ना और उसकी मुस्लिम लीग जैसे भेड़िये शामिल हो चुके थे. वे 1937 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बन गए। सावरकर
के विचारों के रूप में बनी हिन्दू महासभा ने महात्मा गाँधी के धार्मिक हिन्दूवाद
(जिसमे विचारधारा नही बल्कि सिर्फ पूजा पद्धति थी) और अहिंसा, दोनों को चुनौती देने का काम किया। सोचिए आप भारत की स्वतंत्रता के लिए
लगातार लड़ाई लड़ रहे हों, फिर आपको जेल में डाल दिया जाये. जब आप सत्ताईस साल बाद
वापस आये तो देखें की देश को आज़ादी तो मिलेगी लेकिन देश टुकड़ों में बंट जायेगा.
क्या आपको गुस्सा नही आएगा की जिस देश के लिए हम खून बहा रहे हैं, हजारों लोग
फांसी पर चढ़ रहे हैं, आज हालत ये हो जाएँ कि कुछ लोग देश को टुकड़ों में बाँटने की
बात कर रहे हैं. और इसपर भी कांग्रेस में इतनी हिम्मत नही की वो इसपर कुछ बोले.
सावरकर ने साफ कर दिया की जिन्ना की विचारधारा और उसकी मुस्लिम लीग से सीधी लड़ाई
होगी. वो लड़ाई अब हिन्दू महासभा लड़ेगी और देश का बंटवारा किसी भी कीमत पर रोकेगी.
सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के तौर पर पहले ही पाकिस्तान से सम्बन्धित अपने
विचार प्रकट कर चुके थे. उनका कहना था कि यदि पाकिस्तान का निर्माण हो गया तो वह
भारत के लिए हमेशा के लिए परेशानी का कारण होगा। भारत की अखंडता भंग होने को है।
उसे बचाने का दायित्व हिंदुओं पर है। इसीलिए ‘राजनीति
का हिंदूकरण हो और हिंदुओं का सैनिकीकरण हो।’ अहिंसा जहाँ तक
चल सके, वहाँ तक अच्छा लेकिन उन्होंने गाँधी की परमपूर्ण
अहिंसा को अपराध बताया। सावरकर को हिंदुत्व की विचारधारा इसलिए लानी पड़ी क्योकि वो
ही एक रास्ता था जब देश पतन से रोका जा सकता था. सावरकर चाहते थे की मुस्लिम लीग
इस्लाम के बल पर राजनीती करके देश के टुकड़े करना चाहती है तो हिंदुत्व के आधार पर
राजनीती करके इस देश के बंटवारे को हम रोक सकते हैं. कांग्रेस तब हिंदुत्व की बात
नही करती थी और मुस्लिम लीग की शर्तो पर झुक जाया करती थी. हिन्दू एकता का मन्त्र
गढ़के और सैन्यकरण करके अंग्रेजो से मुकाबला किया जाये तो देश को अवश्य स्वतंत्रता
मिलेगी, ऐसा सावरकर का मानना था.
संघ और आजाद हिन्द
फ़ौज में सावरकर की भूमिका
ऐसा नही है की हिंदुत्व शब्द सावरकर ने गढ़ा. हिंदुत्व शब्द
का इस्तेमाल तो 19वीं शताब्दी में ही शुरू हो गया था. पहली बार 1870 के दशक में बंकिम चन्द्र चटर्जी के
उपन्यास आनंद मठ में यह आया. बंगाल और महाराष्ट्र दोनों जगह यह शब्द चलन में था.
लेकिन सावरकर ने एक रुपरेखा तैयार की. विजन तैयार किया और उससे हिंदुत्व के
विचारधारा बन गया. विचारधारा जिसका एक लक्ष्य था.हिंदुत्व के बारे में आगे हम
विस्तार से जानेगे.
हिंदुत्व की विचारधारा जब नागपुर डॉ. हेडगेवार के पास
पहुंची तो उन्होंने हिंदुत्व को प्रेरक और प्रेरणात्मक बताया. बाद में रत्नागिरी
में डॉ हेडगेवार और सावरकर की मुलाकात हुई और हिंदुत्व के साथ जो हिन्दू राष्ट्र
का लक्ष्य था, उसपर चर्चा हुई. इसपर आगे कैसे कार्य किया जाये व् स्तंत्रता
प्राप्ति पर बात हुई. स्वतंत्रता पाने के बाद राष्ट्र को किस प्रकार व्यवस्थित
करना है, अंग्रेजी परम्पराओं रीतिरिवाजों को खत्म करके किस प्रकार भारतीय परंपरा
स्थापित करनी है, अंग्रेजियत हटाकर भारतीयता कैसे लायी जाये, यह सब हिन्दू राष्ट्र
के विजन में शामिल था. सावरकर के इसी विचार को डॉ. हेडगेवार ने आगे बढ़ाने का कार्य
किया. हिन्दू एकता पर कार्य करते करते उन्होंने संगठित हिन्दू की परिकल्पना की.
सवारकर का विजन तय था. उसे पूरा करने के लिए डॉ हेडगेवार ने अपनी कार्यपद्धति
बनाई. और यह 1925 में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ
बनकर धरातल पर उतरा. संघ ने हिंदुत्व की विचारधारा का अनुकरण करते हुए कार्य करना
शुरू किया. सावरकर का रास्ता हिन्दू महासभा के साथ जुड़ा था, संघ बिना राजनितिक
शाखा के साथ था लेकिन राजनितिक शाखा की जरूरत भलीभांति जानता था. आज़ादी तक हिन्दू
महासभा क्रन्तिकारी गतिविधियों के साथ साथ राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेता रहा
ठीक कांग्रेस की तरह. सैन्य विद्रोह सावरकर का विचार था. 1857 को पुनः दोहराने की
बात वो करते रहे थे. सावरकर ने 1857 की क्रांति में हुई भूल को सुधारकर दोबारा
क्रांति करने का प्लान तैयार किया था लेकिन बाद में जेल जाने के बाद वो इसपर कार्य
नही कर सके. इसपर कार्य करने के लिए उन्हें सुभाष चन्द्र बोस का साथ मिला. 22
जून 1940 में जब
सुभाष बोस सावरकर से बंबई में मिले तो उन्होंने सुभाष बाबू को अंग्रेजों के
विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा दी. सावरकर ने अपने विचारों को सुभाष चन्द्र
बोस के द्वारा खड़ा करने के लिए कहा और सुभाष जी ने आगे चलकर सशस्त्र क्रांति के बल
पर आज़ादी पाने के लिए कार्य करना शुरू कर दिया. हम सभी जानते हैं की आज़ाद हिन्द
फ़ौज की स्थापना आगे की गयी. आज़ाद हिन्द फ़ौज के साथ आज़ादी पाने का जो तरीका था उसका
कांग्रेस ने जमकर विरोध किया. गांन्धी के नेतृत्व में कांग्रेस आज़ादी के सपने के
साथ जो अहिंसा का बीज बो रही थी, वो भारतीय समाज को चुपचाप अत्याचार सहन करने के
लिए प्रेरित करती थी. यह अंग्रेजी सरकार के लिए अच्छी खबर थी कि जो भारतीय समाज 1857 में सशस्त्र क्रांति के बल पर आज़ादी पाना चाहता था, वही समाज इतना कमजोर
हो गया की एक गाल पर अगर थप्पड़ पड़ेगा और दूसरा गाल आगे करने के लिए तैयार है.
सन 1946 की प्रमुख घटना
समय के साथ ढलते सावरकर भले ही शरीर से कमजोर हो रहे हों,
लेकिन उनके विचार कमजोर नही पड़े थे. मदन लाल ढींगरा , भगत सिंह और सुभाष चन्द्र
बोस जैसे बड़े स्वतंत्रता सेनानी को तैयार करने वाले सावरकर क्या कमजोर हो सकते थे.
सावरकर ने अपनी विचारों को अपनी पुस्तकों में लिखना शुरु किया. उन्हें पता था कि
भले ही वो कल को न रहें लेकिन उनके विचारों का सूर्य कभी अस्त नही होगा. उन्हें
पता था कि आज नही तो कल उनके विचारों की मजबूती का एहसास दिलाने वाले लोग न सिर्फ
उनके विचारों को अपनाएंगे बल्कि उनके विचारों के अनुरूप ही इस देश का पुनर्निर्माण
करेंगे. 1940 के दशक में एक महत्वपूर्ण घटना हुई. हिन्दू महासभा राजनितिक दल था.
आपको आश्चर्य होगा की उस समय आज़ादी मिलने से पहले होने वाले देश में नेशनल
असेम्बली के चुनावों में कई असेम्बली सीट मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए अरक्षित थी.
जैसे आज SC-ST के लिए सीट आरक्षित हैं,
ऐसे ही तब मुस्लिमों के लिए अरक्षित थी. और जितना बड़ा आश्चर्य इसपर है उससे कंही
बड़ा दुःख इस बात पर कि ये सीटें मुस्लिम अरक्षित होने की वजह से सीधे तौर पर
मुस्लिम लीग के खाते में चली जाती थी. यंहा मुस्लिम लीग की ही जीत होती थी. और
जीतने के बाद ये सभी मुस्लिम लीग के उम्मीदवार देश के दो टुकड़े करने की मांग
असेम्बली में उठाते थे और कांग्रेस सिर्फ मुंह ताकती थी.
आज़ादी के ठीक पहले 1945 में नेशनल असेम्बली के चुनाव हुए. तब यह लगभग लगभग तय हो चुका था की देश
की आज़ादी नजदीक है. और चुनावों में जीते उम्मीदवार ही कई मसलों को तय करेंगे.
सावरकर को इस बात की सम्भावना शत प्रतिशत थी की मुस्लिम लीग चुनावों में जीत के
साथ ही जोर शोर से देश के विभाजन की मांग उठाएगी. गाँधी के नेतृत्व की कांग्रेस
इसका विरोध नही करेगी या फिर इतना साहस नही जुटा पायेगी, यह बात भी पता थी. अगर
हिन्दू महासभा चुनावों में पूरी तरह उतरती तो उसका मुकाबला मुस्लिम लीग के साथ साथ
कांग्रेस से भी था. इससे मुस्लिम वोट तो मुस्लिम लीग को चला जाता लेकिन हिन्दू वोट
बंट जाता और मुस्लिम लीग को फायदा मिलता. हिन्दुओं के वोट का धुर्वीकरण होना देश
के खंडित होने पर मुहर लगना जैसा था.
इन सब बातों पर ध्यान देकर हिन्दू महा सभा ने यह तय किया कि
चुनावों में हिस्सा न लेकर कांग्रेस को समर्थन देना ठीक रहेगा. बदले में यह शर्त
रखी की किसी भी कीमत पर कांग्रेस के देश के खंडन पर सहमत नही होगी और इसका विरोध
करेगी. कांग्रेस ने यह शर्त स्वीकार कर ली. सावरकर की योजना सफल हुई और ज्यादातर
सीटों पर कांग्रेस ही जीती. हिन्दू एकता पर विजयी हुई कांग्रेस से चिढकर मुस्लिम
लीग और जिन्ना ने कांग्रेस को हिन्दू पार्टी कहना शुरू कर दिया. नेहरु के नेतृत्व
में तब कांग्रेस अपनी असलियत छूपा नही सकी. तारीख 03
जून 1947 को देश के वायसराय लार्ड माउन्ट
बेंटन के साथ हुई बैठक में कांग्रेस ने देश के हिन्दुओं से विश्वासघात करते हुए
देश के बंटवारे पर अपनी मुहर लगा दी. देश के राष्ट्रवादियों के लिए, हिन्दुओं के
लिए और हिन्दू महासभा के लिए यह स्थिति वेदनापूर्ण थी. हिन्दू महासभा ने कांग्रेस
को समर्थन देकर गलती कर दी थी और अब वो कुछ नही कर सकते थे. 03 जून को हुई इस बैठक में नेहरु ने हिन्दू महासभा को अनुपस्थित करा दिया था
क्योकि उनको पता था की सावरकर या उनका कोई प्रतिनिधि बैठक में आया तो बंटवारे पर
लगाई जाने वाली स्वीकृति पर तीखा विरोध करेगा.
दुःख का विषय है की जब देश खंडित करने के प्रस्ताव पर
कांग्रेस हामी भर रही थी तब देश के बापू बने फिर रहे महात्मा गाँधी कन्हा थे.
गाँधी की चुप्पी क्या उनकी सहमती थी. अगर वो विरोध करते तो क्या कांग्रेस में इतनी
हिम्मत थी किसी में कि वो खंडित भारत के प्रस्ताव का समर्थन कर देता. ये सारे सवाल
उस समय देश के अंदर लोगों के अंदर चल रहे थे. हिन्दू महासभा के नजरों में नेहरु
खलनायक बन चुके थे. लेकिन महात्मा गाँधी की चुप्पी ज्यादा खली.
तारीख 15 अगस्त
1947 को जब देश आजाद हुआ तो सावरकर ने दो ध्वज फहराए. जिसमे
पहला तिरंगा जो ख़ुशी ख़ुशी फहराया गया क्योकि सदियों से चली आ रही स्वतंत्रता की
लड़ाई सफल हुई थी. और एक भगवा जो प्रतीक था अखंड भारत का. सावरकर मानते थे कि अभी
देश की आज़ादी पूरी नही है. खंडित भारत भी हमारा हिस्सा है और वो वापस आना चाहिए.
इस प्रण के साथ की पूर्व का पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिम का पश्चिमी पाकिस्तान
दोबारा भारत का हिस्सा बने, अखंड भारत बनाने का सपना पूरा हो, इस उद्देश्य से भगवा
ध्वज फहराया गया. ध्वज फहराने के बाद सावरकर ने कहा की – ‘‘मुझे स्वराज्यप्राप्ति की प्रसन्नता है, परन्तु वह
खण्डित है, इसका दुःख है।’’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘राज्य की सीमाएँ नदी तथा
पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के
नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं
पराक्रम से निर्धारित होती हैं।’’
रत्नागिरी से मुक्त
होने पर देशव्यापी यात्राएं
रत्नागिरी जेल से आजादी के बाद सावरकर ने 1943 तक देश का
भ्रमण किया. कई शहरो में वो गये और उनका शानदार स्वागत हुआ. फरवरी 1938 दिल्ली, अप्रैल 1328 कानपूर, सोलापुर, मई पूना, पंजाब (लाहौर), अमृतसर. उसके बाद बम्बई जाते
हुए अजमेर, जोधपुर, नासिक, ग्वालियर, सिंध पहुंचे. वंहा से कराची, हैदराबाद सक्खर
अदि नगरो में गये और उनका भव्य स्वागत हुआ. मार्च 1939 में
मुंगेर, सितम्बर धाखाड़ होसुर, बैलहोंगल आदि कर्नाटक के नगरो में गये. अक्तूबर में
मेरठ गये जन्हा उनके जुलुस पर मुस्लिमो ने हमला कर दिया. दिसम्वर 1939 में कलकत्ता में हिन्दू महासभा का वार्षिक सम्मेलन हुआ. बंबई से यंहा
पहुंचने पर जोर शोर से सावरकर का सम्मान हुआ. नेपाल नरेश में इस सम्मेलन में आये.
मार्च 1940 में वो कर्नाटक फिर मद्रास और फिर केरल गये.
मदुरै के मिनाक्षी मंदिर में तो उनकी हाथी पर भगवा ध्वज के साथ जुलुस निकाला. यात्रा
चलती रहीं. सन 1941 में असम गये. वंहा पर उनका भव्य स्वागत
हुआ. तब आसाम में भारी संख्या में मुस्लिम आ रहे थे. उन्होंने इसके दूरगामी भयंकर
परिणाम होने की बात कही. नेहरु ने इसके प्रतिउत्तर में कहा की असम में बहुत खाली
जगह पड़ी है. प्रकृति नही चाहती कि कंही खाली जगह पड़ी रहे. इसका विरोध करते हुए
सावरकर ने कहा की “नेहरु न तो दार्शनिक हैं न शास्त्रज्ञ, उन्हें नही मालूम कि
प्रकृति विषाक्त वायु को दूर हटाना चाहती है”
गाँधी बनाम सावरकर विश्लेष्ण
गाँधी
और सावरकर एक दुसरे की विचारधारा के विरोधी रहे हैं. गाँधी का विरोध सावरकर ने
तर्को और तथ्यों के आधार पर किया. बिना गाँधी और सावरकर के आपसी सोच का विश्लेष्ण
किये बिना हम सावरकर को या फिर गाँधी को महान घोषित नही कर सकते. जैसा की पहले
बताया कि गाँधी की तथाकथित ‘अंग्रेज-भक्ति’ और
अहिंसा को सावरकर ने पहले दिन से ही गलत बताया था। यद्यपि गाँधी, सावरकर से 14 साल बड़े थे और सावरकर के लंदन पहुँचने
(1906) के पहले ही वे अपने साउथ अफ्रीका में हुए रंग भेद
नीति के खिलाफ आंदोलन के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे. दुनिया में गाँधी को पहचान
मिली जा चुकी थी लेकिन भारत की स्वतंत्रता संग्राम में उनका तब तक कोई योगदान नही
था. भले ही गाँधी तब विख्यात थे (भले ही वो अफ्रीका में किए काम के कारण था) लेकिन
अगले चार साल में ही सावरकर भी विश्व-विख्यात क्रांतिकारी का दर्जा पा गए थे। (और
यह शत प्रतिशत भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए ही थी). जब सावरकर 27 वर्ष के थे तो
उन्हें पचास साल की सज़ा मिली थी। ब्रिटेन से भारत लाए जाते वक्त उन्होंने जहाज से
समुद्र में छलांग क्या लगाई, वे सारी दुनिया के
क्रांतिकारियों के कण्ठहार बन गए। दुश्मन के चंगुल से पलायन तो नेपोलियन, लेनिन और सुभाष बोस ने भी किया था, लेकिन सावरकर के
पलायन में जो रोमांच और नाटकीयता थी, उसने उसे अद्वितीय बना
दिया था।
कल्पना
कीजिए कि जैसे गाँधी 1915
में दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भारत आए, वैसे ही 1910
में सावरकर अपनी बैरिस्टरी पढ़कर भारत लौट आते तो क्या होता ?
भारत का राष्ट्रपिता कौन कहलाता? गाँधी या
सावरकर ? भारत की जनता पर किसकी पकड़ ज्यादा होती, किसका असर ज्यादा होता ? गाँधी का या सावरकर का ?
सावरकर को बाल गंगाधर तिलक, स्वामी श्रद्धानंद,
लाला लाजपतराय, मदनमोहन मालवीय, विपिनचन्द्र पाल जैसे सबसे प्रभावशाली नेताओं का उत्तराधिकार मिलता और
गाँधी को दादाभाई नौरोजी और गोपालकृष्ण गोखले जैसे नरम नेताओं का ! कौन जानता है
कि खिलाफत का आंदोलन भारत में उठता या न उठता । जिस खिलाफत ने पहले जिन्ना को
भड़काया, काँग्रेस से अलग किया और कट्टर मुस्लिम लीगी बनाया,
उसी खिलाफत ने सावरकर को कट्टर हिन्दुत्ववादी बनाया। याद रहे कि
हिंदुत्व के बल पर आगे बढ़ते सावरकर मुस्लिम लीग के बनने के बाद ही शुरू हुए. यदि
मुस्लिम सांप्रदायिकता का भूचाल न आया होता तो हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा सावरकर
लगाते या न लगाते, कुछ पता नहीं। सावरकर के पास जैसा मौलिक
पांडित्य, विलक्षण वक्तृत्व और अपार साहस था, वैसा काँग्रेस के किसी भी नेता के पास न था। इसमें शक नहीं कि गाँधी के
पास जो जादू की छड़ी थी, वह सावरकर क्या, 20 वीं सदी की दुनिया में किसी भी नेता के पास न थी लेकिन अगर सावरकर जेल से
बाहर होते तो भारत की स्थिति कुछ और होती। तब जनता को समझ में नहीं आता कि वह
सावरकर के हिन्दुत्व को तिलक करे या गाँधी के ! उसे तय करना पड़ता कि सावरकर का
हिन्दुत्व प्रामाणिक है या गाँधी का !
यह
भी संभव था कि सावरकर के हिन्दू राष्ट्रवाद और जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद में सीधी
टक्कर होती और 1947
की बजाय भारत विभाजन 1937 या 1927 में ही हो जाता और गाँधी इतिहास के हाशिए में चले जाते ! या फिर जिन्ना की
दलीले और बनाई हवा पानी बन जाती और सावरकर इस राष्ट्र को विभाजन से बचा लेते. यह
मानना पड़ेगा कि सावरकर के जेल में और गाँधी के मैदान में रहने के कारण जमीन-आसमान
का अन्तर पड़ गया। 1937 में सावरकर जब रिहा हुए तब तक गाँधी
और नेहरू भारत-हृदय सम्राट बन चुके थे। वे खिलाफत, असहयोग और
सविनय अवज्ञा आंदोलन चला चुके थे। उन्होंने काँग्रेस को भारत की मुख्यधारा बना
दिया था। जैसा कि हम जान चुके हैं कि जिन्ना, आम्बेडकर और
मानवेंद्रनाथ राय अपनी अलग धाराएँ काटने की कोशिश कर रहे थे लेकिन गाँधी को चुनौती
देनेवाला कोई नहीं था। यह कार्य करने का बीड़ा सावरकर ने उठाया। सावरकर को काँग्रेस
में आने के लिए किस-किसने नहीं मनाया लेकिन वे ‘मुस्लिम
ब्लेकमेल’ के आगे घुटने टेकनेवाली पार्टी में कैसे शामिल
होते ? वे 1937 में हिन्दू महासभा के
अध्यक्ष बन गए। हिन्दू महासभा ने गाँधी के हिन्दूवाद और अहिंसा, दोनों को चुनौती दी।
सावरकर
और गाँधी दोनों हिन्दुत्व के प्रवक्ता थे और दोनों अखंड भारत के समर्थक थे। गाँधी
का हिन्दुत्व पारम्परिक,
सनातनी, अहिंसक प्रतिकार और जन्मना वर्णाश्रम
का समर्थक और अ-हिन्दुओं के प्रति उदार था जबकि सावरकर का हिन्दुत्व अ-हिन्दुओं के
प्रति ‘उचित’ रवैये का पोषक, परम्परा-भंजक, हिंसक प्रतिकार और बुद्धिवादी
दृष्टिकोण का पक्षधर था। सावरकर इतिहास की गलतियों को दोबारा दोहराने के पक्षकार
नही थे. सावरकर ने हिन्दुत्व के दो आवश्यक तत्व बताए। जो व्यक्ति भारत भूमि (अखंड
भारत) को अपना पितृभू और पुण्यभू मानता है, वह हिन्दू है। यह
परिभाषा समस्त सनातनी, आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी,
देवसमाजी, सिख, बौद्ध,
जैन तथा ब्राह्मणों से दलितों तक को हिन्दुत्व की विशाल परिधि में
लाती है और उन्हें एक सूत्र में बाँधने और उनके सैनिकीकरण का आग्रह करती है। वह
ईसाइयों और पारसियों को भी सहन करने के लिए तैयार है लेकिन मुसलमानों को वह किसी
भी कीमत पर ‘हिन्दू’ मानने को तैयार
नहीं है, क्योंकि भारत चाहे मुसलमानों का पितृभू (बाप-दादों
का देश) हो सकता है लेकिन उनका पुण्यभू तो मक्का-मदीना ही है। उनका सुल्तान तो
तुर्की का खलीफा ही है। सावरकर को पता था की मुस्लिम यंहा पर जन्मे हैं, उनके
माता-पिता भी यंही पर जन्मे हैं, लेकिन उनकी अब की मानसिकता भारत को वो आदर नही
देती जो मक्का मदीना को वो देते हैं. यह भी स्पष्ट था कि जब अगाध भक्ति की बात आती
तो भी मुस्लिमो के लिए मक्का-मदीना आगे रहता. भारत भूमि के प्रति सम्पूर्ण समर्पण,
त्याग और निस्वार्थ प्रेम इस्लाम इसकी अनुमति नही देता. क्योकि इस्लाम सिर्फ और
सिर्फ मक्का-मदीना के लिए सब कुछ करने का कहता है. प्रक्टिकल के तौर पर उस समय
मुस्लिम लीग यही सावरकर की सोच को सही साबित कर रही थी.
सावरकर पर कट्टर
मुस्लिम विरोधी होने की छवि कितनी सही
मुस्लिम
इस देश को पुण्यभू नही मानते, यह एक तत्कालिक तथ्य था, चिरन्तर सच नही। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन बहुमत के तौर पर यह तथ्य सही लगता
है. सावरकर के इस तर्क की कमियों पर चर्चा हो सकती है लेकिन यह मान भी लें कि
सावरकर का तर्क सही है और मुसलमान हिन्दुत्व की परिधि के बाहर हैं तो भी सावरकर के
हिन्दू राष्ट्र में मुसलमानों की स्थिति क्या होगी, यह जानने के लिए हमे जानना होगा कि सावरकर मुस्लिमो के खिलाफ कट्टर थे या नही? सावरकर को जाँचने की
दूसरी कसौटी यह हो सकती है कि यदि उन्होंने मुस्लिम पृथकतावाद (अलगाववाद) और
परराष्ट्र निष्ठा यानि अलग देश की मांग या चाह पर आक्रमण किया तो उन्होंने
हिन्दुओं की गंभीर कुरीतियों पर भी हमला किया या नहीं? दूसरे
शब्दों में सावरकर के विचारों के मूल में हिन्दू सांप्रदायिकता थी या शुद्ध
बुद्धिवाद था, जिसके कारण हिन्दुओं और मुसलमानों में उनकी
क्रमशः व्यापक और सीमित स्वीकृति भी नहीं हो सकी। उन्होंने हिंदुत्व को खड़ा किया
लेकिन हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियाँ या वे परम्पराएँ जो समय की स्थिति से मेल
नही खा रही थी और एकता के बीच में आ रही थी, उनपर भी जमकर हमला बोला.
इन
दोनों कसौटियों पर यदि सावरकर के विचारों को कसा जाए तो यह कहना कठिन जो जाएगा कि
वे कट्टर मुस्लिम विरोधी थे बल्कि यह मानना सरल हो जाएगा कि वे उग्र बुद्धिवादी थे
और इसीलिए राष्ट्रवादी भी थे। अगर वे मुस्लिम विरोधी होते तो 1909 में लिखे गए अपने ग्रन्थ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’
में वे बहादुरशाह जफ़र, अवध की बेगमों, अनेक मौलाना तथा फौज के मुस्लिम अफसरों की बहादुरी का मार्मिक वर्णन नहीं
करते। इस विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ की भूमिका में वे यह नही कहते कि अब शिवाजी और
औरंगजेब की दुश्मनी के दिन लद गए। यदि सावरकर संकीर्ण व्यक्ति होते तो लंदन में
आसफ अली, सय्यद रजा हैदर, सिकन्दर हयात
खाँ, मदाम भिकायजी कामा जैसे अ-हिन्दू लोग उनके अभिन्न मित्र
नहीं होते। आसफ अली ने अपने संस्मरणों में सावरकर को जन्मजात नेता और शिवाजी का
प्रतिरूप कहा है।
यह
हमको समझना पड़ेगा की उनका विरोध इस्लामिक विचारधारा के प्रति था न की मुस्लिम
लोगों के.
सावरकर
ने हिन्दू महासभा के नेता के रूप में मुस्लिम लीग से टक्कर लेने की जो खुली घोषणा
की थी,
उसके कारण स्पष्ट थे। पहला, महात्मा गाँधी
द्वारा चलाया गया खिलाफत आन्दोलन हिन्दू-मुस्लिम एकता का अपूर्व प्रयास था,
इसमें शक नहीं लेकिन उसके कारण ही मुस्लिम पृथकतावाद का बीज बोया
गया। हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए आज़ादी की लड़ाई से हटकर तुर्की के खिलाफा की चिंता
करना कितना वाजिब है. सच कहूँ तो यह गाँधी की वो निर्बलता की निशानी है जिसमे वो
मुस्लिमो के सामने झुक जाते थे. सन 1924 में खुद तुर्की नेता
कमाल पाशा ने खलीफा के पद को खत्म कर दिया तो भारत के मुसलमान भड़क उठे। केरल में
मोपला विद्रोह हुआ। भारत के मुसलमानों ने अपने आचरण से यह गलत प्रभाव पैदा किया कि
उनका शरीर भारत में है लेकिन आत्मा तुर्की में है। यही कारण था की सावरकर ने
इस्लाम के खिलाफ जो कुछ लिखा उसे स्वीकार्य किया जाना चाहिए. जब देश आज़ादी के लिए
लड़ रहा था तब मुस्लिम समाज खलीफा आन्दोलन में व्यस्त था और इससे सावरकर की बात सही
सिद्ध हुई कि वे मुसलमान पहले हैं, भारतीय बाद में हैं।
तुर्की के खलीफा के लिए वे अपनी जान न्यौछावर कर सकते हैं लेकिन भारत की आजादी की
उन्हें ज़रा भी चिन्ता नहीं है। इसी प्रकार मुसलमानों के सबसे बड़े नेता मोहम्मद अली
द्वारा अफगान बादशाह को इस्लामी राज्य कायम करने के लिए भारत पर हमले का निमंत्रण
देना भी ऐसी घटना थी, जिसने औसत हिन्दुओं को रुष्ट कर दिया
और गाँधी जैसे नेता को भी विवश किया कि वे मोहम्मद अली से माफी मँगवाएँ। एक तरफ
हिन्दुओं के दिल में यह बात बैठ गई कि मुसलमान भारत के प्रति वफादार नहीं हैं और
दूसरी तरफ मुस्लिम संस्थाओं ने यह मान लिया कि अगर अंग्रेज चले गए तो मुसलमानों को
हिन्दुओं की गुलामी करनी पड़ेगी।
इसीलिए
उन्होंने अंग्रेजों को भारत से भगाने की बजाय उनसे अपने लिए रियायतें माँगना शुरू
कर दिया। यदि जनसंख्या में उनका अनुपात 20 से 25 प्रतिशत तक था तो वे राज-काज में 33 से 50 प्रतिशत तक प्रतिनिधित्व माँगने लगे। अपनी प्रकम्पकारी पुस्तक ‘पाकिस्तान पर कुछ विचार’ में डॉ. आम्बेडकर ने इसे
हिटलरी ब्लेकमेल की संज्ञा दी है। उन्होंने लोगों के बलात् धर्म-परिवर्तन, गुण्डागर्दी और गीदड़भभकियों की भी कड़ी निन्दा की है। सावरकर ने अपने प्रखर
भाषणों और लेखों में इसी ब्लेकमेल के खिलाफ झण्डा गाड़ दिया। उन्होंने 1937 के अपने हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में साफ़-साफ़ कहा कि काँग्रेस की
घुटनेटेकू नीति के बावजूद भारत में इस समय दो अलग-अलग राष्ट्र रह रहे हैं। यह भारत
के लिए खतरे की घंटी है। यदि पाकिस्तान का निर्माण हो गया तो वह भारत के लिए
स्थायी सिरदर्द होगा। भारत की अखंडता भंग होने को है। उसे बचाने का दायित्व
हिंदुओं पर है। इसीलिए ‘राजनीति
का हिंदूकरण हो और हिंदुओं का सैनिकीकरण हो।’ अहिंसा जहाँ तक
चल सके, वहाँ तक अच्छा लेकिन उन्होंने गाँधी की परमपूर्ण
अहिंसा को अपराध बताया। यह हमने पहले भी जाना.
अपने अनेक भाषणों और लेखों में सावरकर ने साफ़-साफ़ कहा कि हिन्दू लोग
अपने लिए किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहते। वे एक संयुक्त और अखंड
राष्ट्र बनाकर रह सकते हैं बशर्ते कि कोई भी समुदाय अपने लिए विशेषाधिकारों की
माँग न करे। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा "भारतीय राज्य
को पूर्ण भारतीय बनाओ।"
“मताधिकार, सार्वजनिक
नौकरियों, दफ्तरों, कराधान आदि में
धर्म और जाति के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए। किसी आदमी के हिन्दू या मुसलमान,
ईसाई या यहूदी होने से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। ….जाति, पंथ, वंश और धर्म का
अन्तर किए बिना ‘एक व्यक्ति, एक वोट’
का नियम राज्य का सामान्य आधार होना चाहिए”
क्या यह घोषणा सावरकर
या उनके द्वारा बनाये हिंदुत्व को मुस्लिम विरोधी बनाती है ?
लगभग 10 हजार पृष्ठ के समग्र सावरकर वाडमय
(प्रभात प्रकाशन) में ढूँढने पर भी कहीं ऐसी पंक्तियाँ नहीं मिलतीं, जिनमें मुसलमानों को सताने, तंग करने या दंडित करने
की बात कही गई हो। ‘हिन्दुत्व’ नामक
अत्यंत चर्चित ग्रंथ में तत्कालीन मुसलमानों की ‘राष्ट्रविरोधी
गतिविधियों’ पर अपना क्षोभ प्रकट करते हुए सावरकर लिखते हैं
कि उन्होंने हिंदुत्व का नारा क्यों दिया था।
– “अपने अहिन्दू
बंधुओं अथवा विश्व के अन्य किसी प्राणी को किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाने हेतु नहीं
अपितु इसलिए कि आज विश्व में जो विभिन्न संघ और वाद प्रभावी हो रहे हैं, उनमें से किसी को भी हम पर आक्रांता बनकर चढ़ दौड़ने का दुस्साहस न हो सके”
सावरकर
के हिंदुत्व गढ़ने पर यह भी अवश्य विचार करना चाहिए की विश्व युद्ध का दौर था.
दुनिया धर्म के नाम पर संगठित हो रही थी. अलग अलग धड़े बन रहे थे. इस्लामिक एकता तो
दूसरी तरफ ईसाई एकता का झंडा बुलंद हो रहा था. ऐसे में संगठित हिन्दू बहुत जरूरी
था.
उन्होंने
आगे यह भी कहा कि “कम से कम उस समय तक, हिन्दुओं को अपनी कमर कसनी होगी, जब तक
हिन्दुस्थान के अन्य सम्प्रदाय हिन्दुस्थान के हितों को ही अपना सर्वश्रेष्ठ हित
और कर्तव्य मानने को तैयार नहीं हैं …”
मतलब
साफ है की हिंदुत्व को आगे बढ़ाने में तत्कालीन परिस्थियाँ एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं.
वास्तव में भारत की आज़ादी के साथ वह समय भी आ गया। यदि 1947 का भारत, सावरकर के सपनों का हिन्दू राष्ट्र नहीं था तो क्या था ?
स्वयं
सावरकर ने अपनी मृत्यु से कुछ माह पहले 1965 में ‘आर्गेनाइज़र’ में प्रकाशित भेंट-वार्ता में इस तथ्य
को स्वीकार किया है। सावरकर ने मुसलमानों का नहीं, बल्कि
उनकी तत्कालीन ब्रिटिश भक्ति, पर-निष्ठा और ब्लेकमेल का
विरोध किया था।
इस विरोध का आधार संकीर्ण साम्प्रदायिकता या मुस्लिम विरोध नहीं,
शुद्ध बुद्धिवाद था। वो राष्ट्रवाद था. यदि वैसा नहीं होता तो क्या
हिंदुत्व का कोई प्रवक्ता आपात् परिस्थितियों में गोवध और गोमांस भक्षण का समर्थन
कर सकता था ? स्वयं सावरकर का अन्तिम संस्कार और उनके बेटे
का विवाह जिस पद्धति से हुआ, क्या वह किसी भी पारम्परिक
हिन्दू संगठन को स्वीकार हो सकती थी ? सावरकर ने
वेद-प्रामाण्य, फलित ज्योतिष, व्रत-उपवास,
कर्मकांडी पाखंड, जन्मना वर्ण-व्यवस्था,
अस्पृश्यता, स्त्री-पुरूष समानता आदि प्रश्नों
पर इतने निर्मम विचार व्यक्त किए हैं कि उनके सामने गाँधी और कहीं-कहीं आम्बेडकर
भी फीके पड़ जाते हैं।
सावरकर
का हिंदुत्व, हिन्दू एकता पर आधारित था. उनका हिंदुत्व मन्दिर में घंटी बजाने से
सम्बन्धित नही था. बल्कि वो भारत के इतिहास से सीख लेकर भविष्य को लेकर व्याप्त
चिंता को हटाने के लिए राजनितिक विचारधारा थी. और यह विचारधारा हमेशा हर समुदाय को
भारत से लगाव लगाने के लिए कहती रहेगी. हिंदुत्व शत प्रतिशत राष्ट्रहित में है,
किसी पूजा पद्धति के समर्थन या विरोध के लिए नही.
समाज सुधारक के रूप में सावरकर
सावरकर जी जाति-पाँति और
छुआ-छूत के घोर विरोधी थे। जातिवाद और अश्पृश्यता का जैसा विरोध वीर सावरकर ने
किया था, वैसा तो कॉंग्रेस और महात्मा गाँधी ने भी नहीं किया।
सावरकर जी ने सवर्ण एवं दलित— दोनों के लिए लिए फरवरी,
1931 में बम्बई में ‘पतितपावन मन्दिर’ की स्थापना की, जिससे सभी एक स्थान पर साथ-साथ पूजा
कर सकें। पतितपावन मंदिर का उद्घाटन स्वयं शंकराचार्य श्री कुर्तकोटि के हाथों से
हुआ एवम् उनकी पाद्यपूजा चमार नेता श्री राज भोज द्वारा की गयी थी। सावरकर जी ने
घोषणा की कि इस मन्दिर में समस्त हिंदुओं को पूजा का अधिकार है और पुजारी पद पर
गैर-ब्राह्मण की नियुक्ति होगी। मन्दिर-स्थापना के साथ सावरकर जी ने सवर्णों के
अछूतों के साथ बड़े-बड़े सहभोज और पूजा-पाठ जैसे आयोजन किए, जिनसे
अस्पृश्यता-निवारण को काफ़ी बल मिला। 25 फरवरी, 1931 को उन्होंने बॉम्बे प्रेसीडेंसी अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता
की। 26 अप्रैल, 1931 को वह पतितपावन
मंदिर के परिसर में सोमवंशी महार परिषद् के अध्यक्ष बनाए गये। 1934 में मालवान में सावरकर जी की अध्यक्षता में अछूत बस्ती में चायपान,
भजन-कीर्तन, अछूतों को यज्ञोपवीत संस्कार,
विद्यालय में समस्त जाति के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के बैठाना,
सहभोज आदि हुए। 1937 में रत्नागिरि से जाते
समय सावरकर जी के विदाई समारोह में समस्त भोजन अछूतों द्वारा बनाया गया जिसे सभी
सवर्णों-अछूतों ने एकसाथ ग्रहण किया था।
सावरकर जी ने हिन्दू समाज में
व्याप्त सात बन्दियों का विरोध किया और उनके उन्मूलन में अपना जीवन खपा दिया :
1. स्पर्शबंदी
(निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता),
2. रोटीबंदी
(निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध),
3. बेटीबंदी
(ख़ास जातियों के संग विवाह-सम्बन्ध निषेध),
4. व्यवसायबंदी
(कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध),
5. सिंधुबंदी
(सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध),
6. वेदोक्तबंदी
(वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध) और
7. शुद्धिबंदी
(किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध)
एक लेखक व् कवि के
रूप में
सावरकर ने बचपन में ही कविताएँ
लिखनी शुरू कर दी थीं। वह अंग्रेज़ी एवं मराठी के सिद्धहस्त कवि, उपन्याकार और इतिहासकार थे। उन्होंने मराठी में 10,000 से अधिक और अंग्रेज़ी में 1,500 से अधिक पृष्ठ लिखे। ‘इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट’ और ‘तलवार’
में उन्होंने अनेक लेख लिखे, जो बाद में
कलकत्ते के ‘युगांतर’ में भी छपे।
उनकी ‘1857 का भारतीय स्वातंत्र्य
समर’ पुस्तक अपने विषयवस्तु की दृष्टि से जैसे क्रान्तिकारी
ग्रन्थ था, एक क्रान्तिकारी द्वारा लिखा गया, किन्तु उसकी विशेषता और महानता कीर्ति के पंख लगा के जैसे उड़ने लगी। कारण
यह कि, संसार का वह एक विचित्र अपवाद था—जिस ग्रंथ के प्रकाशन से पूर्व ही उसकी पाण्डुलिपि किसी साम्राज्यवादी
सत्ता ने जब्त कर ली। मानो किसी साहसी लेखक ने शत्रु के घर जाकर ही उसका कच्चा
चिट्ठा तैयार किया, जब शत्रु को पता लगा तो वह बौखला उठा।
उसी प्रकार ‘गोमांतक’ का
निर्माण भी बड़ा अद्भुत संस्मरण है—जैसे कटार की छाया में भी
किसी विद्रोही कवि ने अपने विचारों के ज्वालामुखी को व्यक्त किया। यह ग्रन्थ
अण्डमान जेल की विकराल सींखचों में तैयार हुआ—वीर सावरकर ऐसा
भयंकर बन्दी समझा गया, जिसकी गतिविधियों की विशेष निगरानी के
कड़े आदेश थे। उसकी सूचना भारत सरकार के अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार को भी भेजी जाती
थी, उस जैसे बन्दी के आवेदन पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं
उठता था—अतः कागज लेखनी, एवं अन्य
सामग्री देने से जेल-अधिकारियों का स्पष्ट इन्कार था। किन्तु एक क्रान्तिकारी,
एक विचारक कवि कैसे अपनी मानसिक भूख को तृप्त किए बिना रह सकता था।
उसे एक नई अनुभूति हुई कि हमारे ऋषि-मुनि कन्दराओं एवं हिम-पर्वतों में रहकर कैसे
इतना महान् तत्वज्ञान संसार को दे गए। तब उनको सूझा कि—ऐसा
तत्वज्ञान साहित्य-सृजन, कथा या इतिहास वाक्य, शब्द रचना यानी गद्य में लिखना संभव नहीं, यदि
वर्षों तक भी स्मरण-शक्ति द्वारा संजोकर रखा जा सकता है—तो
पद्य यानी काव्य के रूप में। इसी कारण प्राचीन संस्कृत साहित्य मन्त्र एवं श्लोक
भी उनकी काव्य-शैली में है, तब इस परमपुरुष ने भी यही प्रयोग
आरम्भ किया। उनको जेल में जो श्रम करना पड़ता था, वह दो-तीन
प्रकार था। एक था मूँज का पटसन, जूट के रेशे कूटना—या बैलों के समान तेल निकालने के लिए कोल्हू में जुतना—यह एक बड़ी हृदयविदारक बात थी, कि जब वह पशु के समान
गोल चक्कर में लड़खड़ाते हुए घूमते तो मराठी जो उनकी मातृभाषा है, जिसके वह उच्च-कोटि के साहित्यकार एवं कवि हैं। उसकी कविता का एक पद्य या
छन्द तैयार हो जाता और यह सौभाग्य इस ‘गोमांतक’ महाकाव्य एवं एक दूसरी अनुपम काव्य-कृति ‘कमला’
को प्राप्त है—जब इस काम से निवृत्त होते तो
भी उनको सामान्य मानवी अधिकार, सुविधाएँ तो प्राप्त थीं नहीं—वह उस कविता के छन्दों के गुण-दोष परखने के लिए एवं अच्छी तरह कण्ठस्थ हो
जाये उस समय तक के लिए लकड़ी के जले कोयले से अपनी जेल-कोठरी की दीवारों पर लिखते।
जिसमें प्रायः अँधेरा ही रहता था—एक ओर से रोशनी केवल आती
थी। इस पर भी यह मुसीबत कि उसको वार्ड के आने से पूर्व, अल्प
समय में कण्ठस्थ करना अनिवार्य होता। इसी प्रकार वर्षों बीत जाने पर उन्होंने कई
हज़ार कविता के छन्द—पद्य, जो भी थे,
पूरे कण्ठस्थ कर लिए। अण्डमान से मुक्त होने के बाद उनको रत्नागिरि
में स्थानबद्धता की अवधि में लिपिबद्ध किया।
15 अप्रैल,
1938 को वह ‘मराठी साहित्य सम्मेलन’ के अध्यक्ष चुने गये। ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखकर सावरकर ने ही हिंदू राष्ट्रवाद को पारिभाषित किया। उनकी
अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं: ‘मेरा आजीवन कारावास’, ‘कालापानी’, ‘मोपला’, ‘गोमान्तक’,
‘अंतज्र्वाला’, ‘हिंदूपदपादशाही’, ‘हमारी समस्याएँ’, इत्यादि।
वीर सावरकर ने भारतीय इतिहास पर
अनेक मौलिक ग्रंथ लिखे। उन्होंने ‘भारतीय इतिहास
के छः स्वर्णिम पृष्ठ’ नामक एक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखा। सावरकर
का सम्पूर्ण साहित्य ‘सावरकर समग्र’ शीर्षक
से 10 खण्डों में प्रकाशित हुआ है।
सावरकर और उनके विचार अमर हैं
>>> 5 फ़रवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के उपरान्त
उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। 19 अक्टूबर 1949 को इनके अनुज नारायणराव का देहान्त हो गया। 4 अप्रैल 1950 को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की
पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया। मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को
उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया। 10 नवम्बर 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए, 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे। 8 अक्टूबर 1949 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने
डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। 8 नवम्बर 1963 को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं।
सितम्बर, 1965 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। 1 फ़रवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का
निर्णय लिया। 26 फ़रवरी 1966 को बम्बई में भारतीय
समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर
परमधाम को प्रस्थान किया <<<
सन 1948 में गाँधी की हत्या में
सावरकर को जेल भेज कर नेहरु ने सिर्फ अपनी दुश्मनी निकाली. बाद में ससम्मान बरी
हुई साथ ही सरकार को मांफी मांगनी पड़ी. सन 1910 से 1937 तक
जेल में गुजारे बाद में लगातार देश के लिए कार्य किया और आज़ादी मिली तो यह इनाम
सावरकर को मिला.
राजनीतिक विरोध के कारण नेहरु ने सावरकर से दुश्मनी निकालना शुरू
कर दिया. गाँधी हत्या के बाद कांग्रेस नेहरु के हाथ में थी. नेहरु ने ही राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ पर भी प्रतिबन्ध लगवाया. वंहा भी मुंह की ही खानी पड़ी और बाद में
प्रतिबन्ध हटाना पड़ा. हम सभी जानते हैं कि 1962 में संघ के
युद्ध के समय सेवा कार्य से पूरा देश प्रभावित हुआ और इसी नेहरु को संघ को गणतंत्र
दिवस की परेड में शामिल होने के लिए आमंत्रित करना पड़ा. सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ
भी कई षड्यंत्र रचे गये. धीरे धीरे सावरकर को मिटाने की चाल चली जाने लगी. मुस्लिम
लीग भले ही पाकिस्तान चली गयी लेकिन भारत में भी कुछ लोगों को छोड़ गयी. कांग्रेस
ने सावरकर और उनके द्वारा दिए गये हिंदुत्व को दबाने के लिए दुष्प्रचार का दौर
चलाया. कई दशकों तक चला. हिन्दू महासभा को धरातल पर ला दिया गया. लेकिन वीर सावरकर
के विचारों का सूर्य अस्त नही हुआ. सावरकर के विचारों के साथ डॉ. हेडगेवार द्वारा
बनाया गया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ धीरे धीरे वट वृक्ष बनने की तरफ अग्रसर होता
रहा. सावरकर RSS के साथ नही जुड़े थे लेकिन विचारों के नीवं
में सावरकर ही थे. हिंदुत्व के विचारों के साथ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1952
में “जन संघ” बनाकर राजनीती में फिर से सावरकर के विचारों को बो
दिया. जन संघ 1980 में भाजपा बन गया. सन 2014 में पहली बार
भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला और एक प्रकार से सावरकर का राजनीती में जीत का सपना
साकार हो गया. यह इत्तेफाक कहें या समय का खेल की जब भाजपा पहली बार नरेंद्र मोदी
के नेतृत्व में 2014 में पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में आई
तो 26 मई को मोदी का शपथ ग्रहण हुआ. 26 मई को राष्ट्रवादी और
हिंदुत्व विचारों वाली शक्ति सत्ता पर आसीन हो गयी. अगले दिन यानि 27 मई को नेहरु की पुण्यतिथि आई यानि अगले ही दिन इस देश से, देश की राजनीती
से नेहरु और उनके विचार विदा लेकर हमेशा के लिए चले गये. और उसके अगले दिन यानि 28
मई को वीर सावरकर की जयंती आई, यानि वीर सावरकर और उनके विचार फिर जीवित हो
गये.
- आशीष राजपूत
( इस लेख को लिखते समय कई लेखकों के लेख,अख़बारों, पुस्तकों व् इन्टरनेट के माध्यम से जानकारी ली गयी है. किसी भी प्रकार की त्रुटी के बारे में तुरंत सूचित करें. विषय के बारे में समाज में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जानी चाहिए, इसके लिए शेयर करके मदद करें. अपने विचार, सलाह आदि के लिए ashishrajputgurgaon@gmail.com पर सेंड करें)
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